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आखिर एक एक कर सारे पडोसी देशों के भारत से रूठने का राज क्या है ?

उम्मीद है अब तक तो आपने भारत और नेपाल के बीच में चल रहे सीमा विवाद के बारे में सुन ही लिया होगा। और साथ ही ये भी पता चल गया होगा कि चाइना ने एक बार फिर लद्दाख के भारतीय क्षेत्र में अपने टेंट लगा लिए हैं और अवैध रूप से भारत में घुसपैठ कर रखी है।


क्या कभी आपने ये सोचा है कि आखिर ये सारे बॉर्डर विवाद क्यूँ होते है या आखिर क्यूँ कोई देश अपनी सीमा से आगे बढ़ कर दुसरे देश की जमीन को अपना बताने लगता है? आखिर कोई तो वजह रहती होगी कोई तो दावे का आधार होगा। अब ये सब बातें सरकार पोषित मीडिया वाले तो आपको नहीं बताएँगे तो सोचा कि हम ही बता दें।


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सबसे पहले तो ये जान लीजिये कि असल जिन्दगी में सीमा नाम कि कोई चीज़ नहीं होती। दो पडोसी जब तक बराबर ताकत रखते हो तो तो अपनी अपनी हद्द में रहेंगे लेकिन अगर एक कमजोर पड़ा तो सीमा वहां होती है जहाँ तक ताकतवर की मर्जी होती है, और अगर वो एक हद में रुका हुआ है तो इसका मतलब ये है कि इससे आगे आने में उसे कोई फायदा नहीं है।


हमेशा से सीमायें ऐसे ही तय होती रही है। आप खुद ईमानदारी से याद करके बता दीजिये कि भारत के किसी भी महान राजा कि सीमा कहाँ से लेकर कहाँ तक थी जो लगातार सौ साल तक एक ही जगह रही? जवाब मिलेगा कोई भी नहीं क्युकी शक्ति कम ज्यादा होती रहती है और जंगों के साथ जमीन देशों के बीच में आती जाती रहती है।


आप इसके के लिए कश्मीर के तुर्तुक गाँव के का उदहारण ले सकते है।


1947 में जब बंटवारा हुआ था तो ये गाँव पाकिस्तान में था, आदत के मुताबिक बहुत सारे लोग वहां से इस्लामाबाद और पाकिस्तान के दुसरे शहरों में जाते थे और 1971 कि जंग में भारतीय सेना ने पाकिस्तान में घुसपैठ कर दी और गाँव वाले शाम में सोये थे पाकिस्तान में और सुबह जागे भारत में। और उनके जितने भी पडोसी रिश्तेदार बेटे भाई पाकिस्तान किसी काम से गये हुए थे सब कानूनी तौर में पाकिस्तानी रह गये और गाँव में मोजूद लोग भारतीय बन गये और तबसे पाकिस्तान में रहने वाले लोग अपने खुद के गाँव में पासपोर्ट लेकर दिल्ली से घूम कर आते है।


सीमा वैसे तो जंगों से तय होती है लेकिन अंग्रेजों से सबसे पहले समझोते से सीमा बनाने का काम शुरू किया था, दरअसल ज्यादा जंग लड़ने से बचने के लिए और बेकार के हिस्सों को ढोने से बचने के लिए उन्होंने पडोसी देशों के साथ सीमा समझोते शुरू किये, कई जगह उन्होंने ने जीत कर राज्य बने तो कुछ जगहे खरीदी जेसे कुमाओं गढ़वाल नेपालियों से खरीदा था। तो कई जगहें उन्होंने लीज पर भी ली थी जेसे गिलगित बल्तिस्तान को कश्मीर के राजा से 60 साल की लीज पर 1930 में लिया गया था।


इस तरह की सीमाओं में एक बड़ी दिक्कत थी कि ये सब कागज़ के नक्शों पर तय की जाती थी, जंग में जीती हुई जगह की सीमा बहुत आसान होती है, जहाँ तक आपकी सेना गयी वहां तक जमीन आपकी लेकिन नक़्शे पर तय की गयी सीमा को जमीन पर तय करना आसान काम नहीं है। समझोते के वक़्त हमेशा नक़्शे पर कुछ डॉट-डॉट वाली लाइन बना दी जाती है जिसे सीमा कहा जाता है लेकिन असल जमीन पर ये तब तक तय नहीं हो पाती जब तक कि इस जगह पर कोई फसाद न पैदा हो या दोनों मुल्क इस पर अपना दावा न ठोंक दें।


जब देश आजाद हुआ तो हमें ये सारी सीमाए अंग्रेजों से विरासत में मिली थी यानि उन्होंने पड़ोसियों से जो समझोते किये थे उन्हें अब हमें पूरा करना था और साथ ही अगर किसी देश के साथ उन्होंने जबरदस्ती की थी तो उसे भी अब हमें ही झेलना था जेसे की अरुणाचल का तवांग। या किसी देश के साथ उन्होने बड़ा भाई बन कर नरम समझोता किया था तो उसका भुगतान भी अब हमें ही करना था।


सबसे पहले तो कश्मीर का मुद्दा सामने आया तो उसे एक जंग के बाद हल कर लिया गया पुराने फोर्मुले से यानि जहाँ तक जिसकी लाठी वहां तक उसकी जमीन। लेकिन पूर्व में चाइना, तिब्बत और नेपाल के साथ ऐसा कुछ नहीं था यानि सीमा अब भी तय नहीं थी।


ये सारी सीमायें पिछले दो सौ सालों में हुए समझोतों से तय होनी थी जो उन देशों के राजाओं ने अंग्रेजों के साथ किये थे और उन समझोते के दस्तावेजों से रेफरेंस पॉइंट लेकर अब जमीन पर निशान लगाने थे, इन्ही संधियों के आधार पर सीमा तय होनी थी जिससे सरकारें अपनी फौजों की हद तय कर सके और जो पड़ोसियों को भी मंजूर हो।

सर्वे हुए, पत्थर के निशान लगाये गये लेकिन चाइना से बात न बनी। इसकी बड़ी वजह ये थी कि अंग्रेजों ने चाइना से कभी कोई समझोता किया ही नहीं था बल्कि उनके सारे समझोते तिब्बत सरकार के साथ हुए थे जो असल में कबीलों के समूह था, बार बार अंग्रेजो के साथ झड़पे हुई और अंग्रेजों ने उन्हें ताक़त का डर दिखा कर मनमाने समझोते किये लेकिन जब बाद में चाइना ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया तो उन्होंने गोरो से दबने से साफ़ इनकार कर दिया। 1914 में अरुणाचल तिब्बत की सीमा तय करने के लिए शिमला में एक बैठक हुई और अंग्रेज अफसरों ने अरुणाचल का नक्शा चीनियों के सामने पेश किया जिसे उन्होंने मानने से साफ़ इनकार कर दिया और बैठक से निकल गये लेकिन अंग्रेजों ने कहा कि उनके जाने को हम सहमति समझेंगे इसलिए अब यही नक्शा माना जाएगा और इस तरह तवांग समेत पूरा अरुणाचल भारत में आ गया जो असल में उस वक़्त इंग्लेंड था जिसके सामने खड़ा होना चाइना के बस की बात नहीं थी।


देश आजाद हुआ और इसी के आस-पास चाइना ने तिब्बत पर आधे-अधूरे के बजाय पूरा कब्ज़ा कर लिया। देश आजद हुए अभी दो साल ही हुए थे, एक तरफ हम कमजोर हुए तो दूसरी तरफ पडोसी कमजोर तिब्बत से मजबूत चाइना हो गया और भारत दबाव में आ गया। चाइना को खुश करना मजबूरी थी इसलिए वहां की कम्युनिस्ट सरकार को नेहरु ने मान्यता दे दी ताकि सीमा पर सींग न उलझें जबकि पूरे यूरोप ने चाइना के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन बात ऐसे कहाँ बनती।


चाइना राजी है या नहीं ये टेस्ट करने के लिए तवांग में सेना भेजी गयी जवाब में चाइना ने कोई जवाब न दिया तो सरकार ने ये मान लिया कि चाइना भी अब तवांग को भारत का हिस्सा मानता है और शिमला समझोते को अब चीनी भूल गये है, सो सब खुश हो गये लेकिन किसी ने ये न सोचा की चाइना चुप है तो किस कीमत पर।


एक साल बाद 1952 में चीन ने भी अक्साई चिन से होते हुए शिनजियांग प्रान्त तक सड़क बना ली बिना पूछे, लॉजिक ये था कि अंग्रेजों ने इसे अपने नक़्शे में दिखाया जरूर था लेकिन उसके लिए तिब्बतियों के साथ कोई समझोता नहीं हुआ था और न तो उस वक़्त नक्शों की उतनी अहमियत थी और न ही तिब्बतियों ने उस ठन्डे बंजर इलाके में गश्त जेसा कुछ किया और इधर कश्मीर के राजा ने भी कभी इस हिस्से में अपनी सेना नहीं भेजी और न ही अंग्रेजों ने नक़्शे के अलावा कोई ऐसा दावा या कार्रवाई की जिससे ये पता चले की ये भारत का हिस्सा था।


चाइना का साइलेंट वार भारी पड रहा था और भारत के पास दो ही रास्ते थे या तो वो अक्साई चिन को चीन का हिस्सा मान ले या तवांग पर माफ़ी मांग कर समझोते की टेबल पर आ जाए क्यूंकि जेसे चाइना अक्साई चिन में घुसा था वैसे ही भारत तवांग में भी घुसा था, ये दूसरी बात है कि चाइना ज्यादा सही जगह घुस गया था।



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लेकिन देशभक्ति चींख उठी, साफ कह दिया कि जहाँ अंग्रेजों ने मूता भी था वो अब भारत का हिस्सा है, मारामारी हुई, 1962 की जंग हुई खूब देशभक्ति के नारे भी लगाये गये लेकिन देशभक्ति के नारों से जंगे नहीं जीती जाती, अलबत्ता चुनाव जरूर जीते जा सकते है।


हाड़ मांस का फौजी बिना हथियारों और खाने के माइनस टेम्परेचर में चल न सके जंग लड़ना दूर की बात है, नतीजा ये हुआ कि हम जंग हार गये और चीन ने अक्साई चिन कब्ज़ा लिया, चाहता तो आगे भी घुस सकता था फ़ौज मजबूत थी लेकिन जितना चाहिए था उतना ही लिया फिर रुक गया। और साथ में तवांग पर भी दावा मार दिया।



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पंडित जी अगर पहले मान जाते तो दोनों में से एक हिस्सा जरूर मिल जाता लेकिन अब अक्साई चिन गया, तवांग विवादित हो गया और जंग हारने के बे इज्ज़ती हुई सो अलग। हार से थोडा सा सबक लिया कि पडोसी से बना कर रखने में भलाई है लेकिन वो ज्यादा दिन न चला।


एक के बाद एक जंगें हुई, 1965 में टाई रहे, यानि मिला कुछ नहीं बारूद फूंका बारह आना। 1971 में भी जीत गये लेकीन मिला एक और पडोसी, खुद को तो घंटा कोई फायदा न हुआ, कारगिल लड़े और अनगिनत जाने गंवाने के बाद भी ऐसे जीते कि तीन चोटियाँ आज भी पाकिस्तान के हिस्से में है।


मेरे हिसाब से तो इस सब के बाद हमें ये समझ लेना चाहिए था कि सीमा एक ऐसा विवाद है जो केवल समझोते से सुलझ सकता है, जंग में इलाका खोने का खतरा होता है, अमेरिका जेसा देश भी पूरी दुनिया में जंग लड़ता है लेकिन पड़ोसियों से भाईचारा रखता है। पर हमें न समझना था न समझे।



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1816 में अंग्रेजों और नेपाली राजा के बीच सगौली की संधि हुई थी जिसकी एक सक शर्त ये भी थी कि पिथोरागढ़ के पास काली नदी दोनों देशों के बीच में सीमा का काम करेगी यानि नदी के उत्तर में भारत और दक्षिण में नेपाल, लेकिन दिक्कत ये थी कि धारचूला के पास ये नदी दो हिस्से में बंट गयी और दोनों नदियों के बीच का हिस्सा कालापानी के नाम से जाना जाता है और मानसरोवर जाने का रास्ता यहीं से जाता है।


इस हिस्से को लेकर पिछले दो सौ सालों में कभी कोई विवाद नहीं हुआ क्यूंकि अधिकारिक तौर पर इसे नेपाल माना जाता था और यहाँ की सुरक्षा और दूसरी चीजें भारतीय सेना देखती थी यानि की अनकहा समझोता।


लेकिन हमें तो चुल है, 2019 में 370 से खुश हुई सरकार ने पूरा कालापानी भारतीय नक़्शे में दिखा दिया इससे नेपाल ने आपत्ति जताई, उनका कहना था की भारतीय क्षेत्र दोनों नदियों के पार के इलाके में पड़ता है यानि पूरा कालापानी हमारा है इस पर भारत ने जवाब दिया कि संधि में लिखी हुई काली नदी दरअसल दक्षिण वाली नदी है और कालापानी हमारा है।

चाहते तो ये विवाद समझोता करके निपटाया जा सकता था लेकिन हम तो राष्ट्रवादी है जी, हमारे पास तो मीडिया की सेना है फिर हम नेपाल से क्यूँ डरे जी? हमने धारचूला से चाइना तक सड़क बनानी शुरू कर दी वो भी नेपाल से बिना पूछे, फिर क्या था नेपाल ने भी आँखें दिखा दी। सुना है वहां भी इस साल इलेक्शन हैं इसलिए वो भी कोई मौका नहीं छोड़ सकते सो उन्होने भी इस साल एक नक्शा निकाल दिया जिसमें कालापानी अपना बता दिया यानि जेसे को तैसा। फेसबुक ट्विटर वगेरह पर भी सुना है खूब गालियां चल रही है।


इस बीच चाइना एक बार फिर लद्दाख में घुस बैठा है कई दिन से जाने का नाम नहीं ले रहा है। वजह पुरानी है कि वहां कोई सीमा जेसा कोई निशान नहीं है जिसका जहाँ मन आया अपना मान लिया फिर चाइना क्यूँ पीछे हटे, पिछली बार डोकलाम मे आया था तो बैंक ऑफ़ चाइना को भारत में लाइसेंस दिला कर वापस हटा था इस बार ऊपर वाला जाने।


इसी बीच खबर ये भी है कि सौतन की तरह लड़ने वाले भारत पाकिस्तान के बीच में कश्मीर में एक खूबसूरत घाटी है नीलम घाटी। सुने हैं वहां पिछले साल दिसम्बर से दोनों देशों ने अपनी अपनी सेना हटा ली है और लोकल लोगो ने वहां कई बार इस्राएल ने सैनिक और जहाज़ देखने की बात कही है। अब एक ऐसा इलाका जहाँ अपने देश के लोगों को जाने की इज़ाज़त नहीं है वहां से सेना हटा कर दोनों देशों का इस्राएल को कब्ज़ा देना समझ के बाहर है वो भी जनता से छुपा कर।



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वैसे भी नवम्बर 2018 में पाकिस्तान में इस्राएल का विमान उतरने की ख़बरों ने खूब जोर पकड़ा था वो आपको याद ही होगा, क्या पता वहां नीलम घाटी में में क्या सीक्रेट मिशन चल रहा है।


वैसे मेरे हिसाब से ये पड़ोसियों से नरमी बरतने और समझोते करके देश को सुरक्षित वाली बात कभी कभी बकवास हो जाती है क्यूंकि अगर पड़ोसियों से झगडा नहीं होगा तो राष्ट्रवाद कैसे जागेगा और पार्टी इलेक्शन कैसे जीतेगी। सरकार को वैसे भी घंटा फर्क न पड़ता, मरेगा तो सैनिक मरेगा पैसा जनता का खर्च होगा और रही बात जमीन की सो चिल्ल, वो पहले भी आती जाती रहती थी और अब भी तो अपने को क्या। हाँ जमीन मांगने वाले आज का चाइना या इस्राएल हो तो बात दूसरी है वहां हम बिना जनता को बताये भी समझोता करके जमीन या कुछ और दे सकते है।

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