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क्या आप जानते है कि आखिर टीपू सुलतान अंग्रेजों से कैसे हार गया?

1791 में मई की गर्म शाम थी। लार्ड कॉर्नवालिस उदासी और निराशा में गोते लगा रहे थे। टीपू की बेजोड़ युद्ध नीति के कारण श्रीरंगपट्टनम का घेरा उठाना पड़ा था। ब्रिटेन में उनकी थू-थू हो रही थी। जेम्स गैलेरी ( जिन्हें पोलिटिकल कार्टूनों का पिता माना जाता है) ने एक कार्टून बनाया था, जिसमे उन्हें बकरे पर बैठकर श्रीरंगपट्टनम से भागते दिखाया गया था।


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दस साल पहले 1781 में कार्रवालिस को जिंदगी की सबसे बड़ी शर्म से गुजरना पड़ा था। एक ब्रिटिश फौजी जनरल के बतौर, जार्ज वाशिंगटन की सेनाओं से हारकर समर्पण दस्तखत किए, और एक नए देश "यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका" को जन्म दिया। ऐसी शर्म दुनिया के किसी ब्रिटीश जनरल न झेली। ( * दरअसल दूसरा सिर्फ एक मौका आया, जब जनरल नियाजी ने भारतीय फ़ौज को समर्पण किया, और बंगलादेश बना)


एलीट बैकग्राउण्ड और तत्कालीन ब्रिटिश पोलिटक्स के चलते, कॉर्नवालिस वह वक्त झेल गए। पांच साल पहले भारत मे गवर्नर जनरल की पोस्टिंग मिली थी। लेकिन दक्कन का सुल्तान टीपू , उन्हें इतिहास के सबसे बड़ा लूजर होने के कगार पर ले आया था।


अमेरिका के यार्कटाउन में अमरीकी किसानों, गुलामो, अनट्रेंड मिलिशिया ने फ्रेंच की मदद से कार्नवालिस की दुर्गति की थी। टीपू तो सम्मानित राजा था, उंसके लोग उसे चाहतेथे। बाप हैदरअली ने एक मजबूत फ़ौज और किले छोड़े थे। और तो और, वही फ्रेंच फौजी मदद यहां भी मौजूद थी। कार्नवालिस का निराश और उदास होना स्वाभाविक था।


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मामला इलाका जीतने का न था, इज्जत का था। टीपू को हराना जरूरी था। अकेले ब्रिटिश दो मैसूर युद्ध कर चुके थे। हैदर ने पहले युध्द में हराकर ब्रिटिश को औकात बता दी, तो दूसरे युध्द के अधबीच में बराबरी का समझौता हो गया। अब लेकिन शक्तिशाली होते टीपू को रोकने की जिम्मेदारी कार्नवालिस की थी। अकेले लड़कर जितना सम्भव न था।


तो उस शाम कार्रवालिस ने आउट ऑफ बॉक्स सोचा। अकेले लड़ना सम्भव नही हो तो मैसूर के पड़ोसियों को साधा। हैदराबाद और त्रावणकोर के कुछ इलाके हैदर ने जीते थे। उन्हें पार्टनर बनाया जा सकता था। मगर जीत पक्की तब होती जब भारत की सबसे मजबूत सबसे बड़ी ताकत, मराठे साथ देते।


कार्नवालिस ने सम्पर्क साधा- युद्ध होगा, मिलकर .. हराएंगे टीपू को। बांट लेंगे सब इलाके। हमे बस वो फ्रेंच कॉलोनीज चाहिए, और बाकी आप लोग बांट लो। आठ माह बाद गिद्ध मैसूर पर मंडरा रहे थे।



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मराठा और ब्रिटिशर्स कदम से कदम मिलाकर मैसूर को चारों ओर से घेर लिया। हैदराबाद निजाम की भी सेना साथ थी, मगर कार्नवालिस के शब्दों में, वो गैर अनुशासित, फ़ौज कम समस्या ज्यादा थी। 3 फरवरी को युद्ध शुरू हुआ। चौतरफा घिरे टीपू को सन्धि करनी पड़ी। उसका ज्यादातर राज्य विजेताओं ने बांट लिया। लाखो का हर्जाना कम्पनी को दिया, और साथ देना पड़ा अपने दो बहादुर बेटे, जो लार्ड कॉर्नवालिस बतौर जमानत अपने साथ ले आया।


लन्दन में कार्नवालिस की जयजयकार हुई। उसका ओहदा अर्ल से बढ़ा कर मरकेस का कर दिया गया। (इससे ऊपर केवल ड्यूक होते है, जो ज्यादातर राजा खानदान से होते हैं)। 1798 में बहादुर और अक्लमंद कार्नवालिस को भारत से उठाकर आयरलैंड का शासक बना दिया गया। वह जीत की मुस्कान के साथ भारत से गया।

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टीपू कमजोर हो चुका था। 1799 में अपनी 1792 की संधि के खिलाफ जाकर उस पर हमला बोल दिया गया। टीपू अपनी फ़ौज से साथ लड़ते हुए मारा गया। बच्चे निर्वासन में भेज दिए गए। फिर उनका कुछ पता न चला।



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जो भी राज्य था अधिकांश ब्रिटिश टेरेटरी हुआ, और कुछ हिस्से वाडियार खानदान के अल्पवयस्क बालक को दे दिये गए। इसी डायनेस्टी को हटाकर टीपू के पिता हैदर ने मैसूर में अपनी सत्ता कायम की थी। टीपू के नामलेवा न बचे।

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आयरलैंड में कार्नवालिस ने वहां के रेबल्स से मात खाई, जनता में अलोकप्रिय हो गया। 1801 उंसके खैरख्वाह " पिट, द यंगर " ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री पद रिजाइन कर दिया। कार्नवालिस ने भी ऑयरलैंड से रिजाइन कर दिया। 1805 में पिट, फिर प्रधानमंत्री बन गया। नतीजतन उम्रदराज हो चले कॉर्नवालिस को एक बार फिर भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया। आने के कुछ ही दिन बाद, उत्तरप्रदेश के गाजीपुर में मर गया। युद्ध मे नहीं। बुखार से ... वहीं गंगा किनारे कब्र है।

कार्नवालिस का फेमस कोट है- " आई नेवर वांटेड टू बिकम फेमस, आई वांटेड ओनली टू बिकम ग्रेट" ।


वो और भी ग्रेट होता... काश, मराठे और निजाम अमरीका में भी होते।


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