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बीएस मुंजे - लंगड़े लूले संघ को पैर देने वाला शख्स जिसे आप नहीं जानते।

वो कहते है न, बड़े से बड़ा बिजनेस एक बड़े आईडिया से बनता है न कि बड़ी रकम से या बड़े से दफ्तर से। बस ऐसा ही कुछ संघ परिवार के साथ हुआ था, संघ की स्थापना जरूर हेडगवार ने की थी लेकिन इसकी कामयाबी में कई बड़े लोगों का हाथ था। इनमे से सबसे बड़ा रोल मुंजे का था।



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डॉक्टर बालकृष्ण शिवराम मुंजे का जन्म बिलासपुर में 1872 में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, पढाई लिखाई मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज से हुई और वहां से 1898 में डॉक्टर बन कर निकले। यही वो तिलक से मिले तो उनके मुरीद हो गये। अगले दस साल यानि 1908 तक उनके साथ ही रहे।


गौरतलब है कि ये दौर रानाडे, गोखले और तिलक जेसे नेताओं का दौर था जो पेशवा राज के वापस आने कि उम्मीद लगाए बैठे थे, इन सारे नेताओं ने बढ़ते मुस्लिम प्रभाव को देख कर पहले कांग्रेस का सहारा लिया और उग्र हिन्दू गतिविधियाँ शुरू की थी। और इसी के जवाब में मुस्लिम बुद्दिजीवियों ने 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना की थी।


1915 में महात्मा गाँधी को अंग्रेजों ने भारत में प्लांट किया, अंग्रेज वैसे तो हिन्दुओं के पक्षधर रहे थे लेकिन ब्राह्मणों से कन्नी काटते थे क्यूंकि वो लोगों को मानसिक गुलाम बनाने में विश्वास रखते थे जबकि ब्राह्मणों की उग्र गतिविधियाँ लोगो को सरकार के खिलाफ या गृहयुद्ध के लिए उकसा सकती थी। महात्मा गाँधी के आने के बाद कांग्रेस अहिंसा और सेकुलरिज्म के चोले में चली गयी और मुंजे समेत सारे मराठी ब्राह्मण उनके खिलाफ हो गये।


आखिर पेशवाई राज को वापस लाने के लिए अहिंसा का त्याग करना जरूरी था।


गाँधी समझते थे की अगर मुस्लिमों को साथ न लाया गया तो वो मुस्लिम लीग के पाले में चले जायेंगे और हो सकता है कि अंग्रेजों का साम्राज्य खतरे में आ जाय इसीलिए मुस्लिमों को कांग्रेस में उलझाये रखना बहुत जरूरी था, लेकिन ये बात मराठी ब्राह्मणों को नागवार गुजरती थी सो एक एक करके कांग्रेस छोडनी शुरू कर दी।


1920 आते आते सारे मराठी कांग्रेस से अलग हो चुके थे, माफ़ीवीर सावरकर भी जेल से वापस आ चुके थे और एक नए ठिकाने की तलाश में थे। सावरकर को अंग्रेजों को शर्त के अनुसार राजनीतिक सभा की इजाजत न थी तो रामायण से प्रेरणा लेकर उनकी खडाऊ सर पर रखकर मुंजे ने राजनीतिक गतिविधयों की कमान संभाली।


1925 ने संघ की स्थापना हुई, यही वो वक़्त था जब यूरोप में फसिस्म अपने चरम पर था।


असल में होता क्या है कि जब किसी देश में कोई आन्दोलन होता है या कोई सफल राजनीतिक प्रयोग होता है तो उसका शोर दूर तक जाता है, भगत सिंह भी रूस के लेनिन से प्रभावित थे और फांसी की आखिरी रात तक भी लेनिन की बायोग्राफी पढ़ रहे थे। अब लेनिन ठहरा वामपंथी समाजवादी, संघ का उससे क्या लेना देना? वो तो कट्टर दक्षिणपंथी थे। वो हिटलर और मुसोलिनी से प्रभावित थे।


संघ की स्थापना तो बड़े जोर शोर से हुई थी लेकिन लोग इतनी तेज़ी से न जुड़े जेसी उम्मीद थी और न ही लोग संघ के विचारों को सुनने के लिए इकठ्ठा होते थे। ये जानने वाली बात है कि हर एक ईसाई हर सन्डे को चर्च जरूर जाता है जहाँ पादरी उसे धार्मिक या राजनीतिक भाषण दे सकता है, मुस्लिम भी दिन में पांच बार या कम से कम हफ्ते में एक बार एक जगह इकठ्ठा होते थे लेकिन हिन्दुओं में ऐसा कोई नियम न था जहाँ सब को एक साथ जमा करके उन्हें राजनीतिक या धार्मिक प्रवचन दिया जा सके।


मुंजे मुसोलिनी से प्रभावित थे, उनके कट्टर राष्ट्रवाद और हर चीज़ को हिंसा से हल करने का तरीका उन्हें बड़ा पसंद था सो उसके तरीके सीखने का प्लान बनाया गया। 1931 में मुंजे ने महासभा के प्रतिनिधि के रूप में लन्दन गोलमेज सम्मलेन में हिस्सा लिया और मार्च का आधा अरसा यूरोप बिताया और लोगो के काम करने के तरीके को समझा।


इटली में उन दिनों मुसोलिनी के ब्लैक शर्ट्स का बोलबाला था, वो लाठियां चलते थे रोजाना मिल कर चलाने की प्रैक्टिस भी करते थे, मुंजे को ये बड़ा पसंद आया और इसका जिक्र करते हुए लिखा कि उनका काम करने का तरीका देखा कर मैं मंत्रमुघ्ध हो गया, उनकी पोशाकों और काम करने के तरीकों की तारीफ करते हुए उन्होंने लिखा कि-

फासीवादी का विचार स्पष्ट रूप से जनता में एकता स्‍थापित करने की परिकल्पना को साकार करता है।....भारत और विशेषकर ‌हिंदुओं को ऐसे संस्‍थानों की जरूरत है, ताकि उन्हें भी उन्हें भी सैनिक के रूप में ढाला जा सके।

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19 मार्च 1931 को उन्होंने राजधानी रोम में मुसोलिनी से मुलाकात की। अगले दिन की अपनी डायरी में वो लिखते है की शायद मुसोलिनी ने भारत के आज़ादी के आन्दोलन पर नजदीक से नज़र रख रखी थी क्यूंकि वो भारत के बारे में सब कुछ जानता था और महात्मा गाँधी से काफी प्रभावित था। जब मैंने पूछा कि क्या आपको लगता है कि अंग्रेजों और भारतीय लोगों के बीच में बीच में शांति हो सकती है तो मुसोलिनी ने जवाब दिया कि अगर अंग्रेज अपने सारे उपनिवेशों में से हमें हिस्सा दे सकते हो तो ये मुमकिन है।


लेकिन मुंजे साहब का ध्यान इस पर न होकर उनके काम करने के तरीके पर था सो उन्होने ब्लैक शर्ट्स के मिलिशिया स्कूल का दौरा किया और बारीकी से डिटेल लेने के बाद भारत वापस आये। संघ का फॉर्मेट वैसे तो हेडगवार ने तय किया था लेकिन वो पिछले छह साल में लगभग फ़ैल हो चूका था सो मुंजे ने ड्रेस कोड से लेकर सब फिर से तय किया।


ब्लैक शर्ट्स रोजाना सुबह लाठी चलने की प्रैक्टिस करते थे इसलिए संघ में शाखा का प्रावधान किया गया और साथ में महीने और साल में होने वाले प्रवचन टाइप समागम का प्रावधान भी किया। मुसोलिनी के ब्लैक शर्ट्स हाफ पैन्ट्स के साथ ब्लैक शर्ट पहनते थे तो मुंजे ने संघियों को खाकी हाफ पेंट के साथ वाइट शर्ट पहना दी। ब्लैक शर्ट्स लाठियां चलाते थे तो सो यहाँ भी लाठियां हाथ में दी गयी। हालाँकि सावरकर हिन्दुओं को सैनिक ट्रेनिंग देने के पक्ष में थे लेकिन अंग्रेजों का कानून जीरो टोलेरेंस की नीति पर चलता था इसलिए कमांडो ट्रेनिंग तो मुमकिन न थी इसलिए लाठी से काम चलाया गया। मुसोलिनी फरसे को अपना प्रतीक मानता था तो यहाँ त्रिशूल को सर लगाया गया।


अंग्रेज अपने राज में किसी अर्धसैनिक मिलिशिया संगठन को पनपने नहीं दे सकते थे लेकिन जब देखा की सरगना माफ़ीवीर है और हमारी पेंशन पर पलता है तो चुप्पी साध ली, वो क्या है न हिन्दू मुस्लिम की एकता को तोड़ने का जो काम अंग्रेज खुद या उनके प्लांट किये गये गाँधी और जिन्नाह न कर पाए वो काम ये लोग खूब कर रहे थे तो उनका फायदा ही था।


1937 में सावरकर से राजनीतिक सभा करने की पाबन्दी हटी तो मुंजे ने महासभा की गद्दी उन्हें सोंप दी और लगभग इन्ही दिनों संघ की चाभी भी गोवलकर को मिल गयी थी जो पहले से मुंजे साहब के विचारों के कट्टर समर्थक थे। एक दुसरे के पूरक दोनों संगठन अब नये संचालकों के हाथ में थे और दोनों ही उग्र राष्ट्रवाद और मुस्लिम विरोध के कट्टर समर्थक थे सो संघ परिवार को मुंजे साहब की सिफारिशों पर आगे बढ़ाने की तय्यारी की गयी।



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अंग्रेजों के उस दौर में आज की तरह हथियार रखना मना था तो गिने चुने लोगों के पास लाइसेंसी हथियार रखे जाते थे जिन्हें विजयदशमी के दिन पूजा जाता था, शुद्र वर्ग को साथ लाने के लिया गणपति विसर्जन, दुर्गा पूजा और कावंड जेसे त्यौहार ईजाद किये गये। ट्रेंड लठेत तैयार किये गये, संघ मुख्य तौर पर हिंसात्मक पक्ष यानि लठेत ट्रेंड तैयार करने का काम करता था जबकि महासभा का काम राजनीती करना था।


शायद भारत के इतिहास में ये पहली बार था जब धर्म को लाठियों और बन्दूकों के सहारे बचाने की कोशिश चल रही थी वरना जितना इतिहास मैंने पढ़ा है उसमे तो मैंने कहीं भी लाठी डंडे का उपयोग या ट्रेनिंग को नहीं देखा।


बकौल मुंजे -

"the point is that this ideal cannot be brought to effect unless we have our own swaraj with a Hindu as a dictator like Shivaji of old or Mussolini or Hitler of the present day in Italy and Germany...But this does not mean that we have to sit with folded hands until some such dictator arises in India. We should formulate a scientific scheme and carry on propaganda for it".

"हमारा मुख्य बिंदु ये है कि भारत में हिन्दु स्वराज को लाने के लिए शिवाजी या आज के इटली और जर्मनी के मुसोलिनी या हिटलर जेसे किसी तानाशाह की जरूरत है लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहें और उस तानाशाह के आने का इंतज़ार करें, हम इसके लिए एक वैज्ञानिक स्कीम और प्रोपेगेंडा के साथ तय्यारी करनी होगी ताकि ऐसे तानाशाह का आना सुनिश्चित किया जा सके।"


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संघ में आज भी सरसंघचालक लोकतान्त्रिक तरीके से न होकर तानाशाही तरीके से जीवन भर के लिए चुने जाते है और आज अपनी मृत्यु के लगभग 70 साल बाद शायद मुंजे अपने उस भावी तानाशाह को पाने के करीब हैं जो उन्हें उनका शिवाजी लौटा सके और उनके लम्बे समय से चल रहे प्रोपेगेंडा को सफल बना सके।


धन्यवाद्।


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