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आखिर ये भद्र बंगाली कौन लोग थे, आज के टाइम में उनका क्या महत्व है?

तो बात कुछ ऐसी है भैया,


पहले अंग्रेज जबी भारत में आये तो जाहिर है की पश्चिम की तरफ से आये, अफ्रीका की तरफ से आने वाले इंसान को पश्चिम घाट पर आना ज्यादा आसान था क्यूंकि पूरब के घाट पर पहुंचने के लिए उन्हें पूरा श्रीलंका, औ सॉरी सीलोन का चक्कर काट कर आना पड़ता, जो बहुत लम्बा था। इसीलिए वो व्यापार करने पहले सूरत में आये, सूरत इसलिए क्यूंकि दक्षिण में केरल और गोवा में पहले से पुर्तगाली और फ्रेंच बैठे थे और सूरत एक खास सूबे में पड़ता है जहा की जनता के व्यापार पसंद होने के कारण बाहर से आने वाले किसी भी हमलावर को लम्बी लड़ाई लड़ने के बजाये थोड़ी सौदेबाजी से ही भारत में घुसने का मौका मिल जाता था, बस बदले में वहाँ के मारवाड़ियों को थोड़ा सा फायदा देना पड़ता था।


आज भी इतिहास उठा कर देखेंगे तो पाएंगे कि भारत में जितने भी विदेशी हमले हुए है वो सूरत या उसके आस पास से ही शुरू हुए है। हाँ, जो जो आप सोच रहे है वो भी सूरत से ज्यादा दूर नहीं रहते थे, वहीँ आस पास ही चाय बेचते थे।


लेकिन जब कम्पनी ने भारत में राज करने की सोची तो वो सूरत से नहीं आये क्यूंकि ब्रिटैन से इतनी दूर तक फ़ौज को जहाज़ों में लाना मुमकिन नहीं था सो उन्हें एक ऐसी जगह से शुरुआत करनी थी जहाँ पहले से उनका राज हो और आसान से एमरजेंसी फ़ौज मिल सके, अंग्रेज थाईलैंड और इंडोनेशिया में पहले से थे, फ़ौज भी थी और राशन भी और अधिकारी भी इसीलिए तय हुआ कि भारत में कलकत्ता से घुसा जाय जो वहां से करीब था। सो पहले कब्ज़ा कलकत्ता के नवाब को हरा कर किया गया।


अब यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि उस वक़्त अंग्रेज भूखे नंगे देश के लोग थे जिन्होंने विकास का हाथ बस थामा ही था, लेकिन फिर भी इतनी दूर सात समंदर पार कौन नौकरी करने आता? वो भी उस जमाने में जब एक तरफ का सफर भी कई महीने का होता था, फोन मुहैया न था और समुन्दर एक सफर पर गए इंसान के जिन्दा लौटने की उम्मीद कम ही होती थी, लिहाज़ा कम्पनी में आने वाले ज्यादातर कर्मचारी 20 साल से कम उम्र वाले होते थे वो भी अक्सर गरीब परिवारों से जिन्हे एक बड़ी कम्पनी में काम करके ढेर सारा पैसा कमाने का लालच यहाँ तक ले आता था। लेकिन ये भी अंग्रेजों के लिए महंगा पड़ता था। एक पढ़े लिखे नौजवान को भर्ती करना, ट्रेनिंग देना, इतनी दूर लाने ले जाने का खर्च और साथ में मोटी तनख्वाह और भत्ते और सबसे बड़ी बात हर 1-2 साल में कुछ महीनो की छुट्टी, जाहिर है की कोई भी कंपनी इसे पसंद नहीं करेगी। ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भी यही हुआ।


जब अंग्रेज राज करने के लिए आये तो अपने साथ अपनी नाजायज औलादें भी लाये जिन्हे एंग्लो-इंडियंस भी कहा जाता था जिनके लिए आज भी राज्यसभा में सीट रिज़र्व रहती है। खैर-



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कम्पनी को अब जरूरत थी सस्ते बाबुओं की, नौकरों की, मुंशी और मुनीमों की इसलिए 1813 में सबसे पहले शिक्षा का बजट रखा गया एक लाख रुपये, जिससे देश में सबसे पहेली यूनिवर्सिटीज खोली गयी कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में जिससे भारतीय बच्चे पढ़ कर निकले और अंग्रेजों को मिले सस्ते नौकर, अब उन्हें बस बड़े अधिकारी और सेनापति के लिए अपने यहाँ से लोग लाने की जरूरत थी, दफ्तर के काम के लिए ये नौकर ये कॉलेज तैयार कर रहे थे और लड़ने के लिए सिपाही तो कभी कम न थे, बंगाल मे मीर जाफर, हैदराबाद में निजाम, महाराष्ट्र में मराठे, ग्वालियर में सिंधीये, राजस्थान के रजवाड़े, पंजाब के सिख सब धड़ा-धड़ अंग्रेजो की फ़ौज में भर्ती हो रहे थे, जो थोड़ी बहुत टक्कर मिली वो टीपू सुल्तान, बेगम हज़रत महल, झाँसी की रानी और बाद में बहादुरशाह जफर से मिली थी, उनके लिए अंग्रेजों ने देश के गद्दारों के साथ काफी फौजें बना ली थी।


अब राजनितिक मसले तो हल हो चुके थे लेकिन सबसे जरूरी काम था जनता को गुलाम बनाना जो फितरत से ही बागी होती है उसे कैसे गुलाम बनाया जाए?


जवाब आसान था, धर्म की अफीम दी जाए, सो वही हुआ। एक तरफ ईसाई मिशनरीज़ जम कर धर्म प्रचार में जुटे तो दुसरी तरफ कहानिया घड़ने का काम शुरू हुआ। ये जो एंग्लो इंडियंस होते है न इन्हे तब डिक्शनरीज़ कहा जाता था, इन्हे लेकर रॉयल एशियाटिक सोसाइटी बनायीं गयी, इसमें शामिल सारे डिक्शनरीज़ को एक नया संस्कृत नाम दिया गया, भद्र बंगाली। उसके बाद ये आज तक भद्र बंगाली ही कहलाते है।



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इन्होने धड़ाधड़ संस्कृत की किताबें पढ़ना शुरू किया, कोशिश तो मुस्लिम किताबों को पढ़ कर बिगाड़ने की भी हुई थी लेकिन वो अपने पाले में न थे सो उनसे तलवार से निपटना पड़ा, जो संधि करके अंग्रेजों के पाले में चले गए थे उनके साथ साहित्यिक गेम शुरू हुआ। नए शब्द गढ़े गए, गौरतलब है की मुगलो की पूरी सल्तनत के दौरान कहीं भी मुग़ल शब्द का इस्तेमाल नहीं मिलता बल्कि इसे सबसे पहले रॉयल सोसाइटी के बनने के लगभग बीस साल पहले इस्तेमाल किया गया तबसे हम इतिहास के एक हिस्से को मुग़ल काल के नाम से जानते है।

अब जो नयी कहानियां लिखी गयी उनमे कुछ देसी कहानिया डाली गई, देसी कवि रचनाये डाली गयी थोड़ा तुलसीदास और सूरदास का छोंक लगाया गया लेकिन मुख्य योगदान भारत के बाहर इंडोनेशिया की किताबों से लिया गया। रचनाएँ पूरी हुई तो इस तरह से कि इनमे बाकायदा भारतीय कालक्रम, इतिहास सब कुछ इस तरह से मिलाया गया कि पढ़ने वाला सच समझ बैठे, ठीक उसी तर्ज पर जैसे अलिफ़ लैला की झूठी कहानी में सच के बग़दाद शहर और खलीफा हारुन रशीद डाल दिया गए जिससे लोग सोचे कि अलादीन सच में हुआ था। इसके लिए बाकायदा मैक्स मूलर जैसे विद्वान बिठाये गए और उन्हें एक मोटी रक़म हर महीने तनख्वाह के तौर पर दी गयी।


लेकिन अब भी एक दिक्कत थी, कहानियां तो लिख गईं, पूरे ग्रन्थ रचे गए लेकिन अब भी लोग न जुड़े तो क्या होगा? हुआ ये कि कहानियों में जो शहर जो जगहें लिखे गये थे वैसी कोई जगह भारत में न थी सो उनके आधार पर भारतीय जगहों के नाम बदले जाने लगे, इंडोनेशिया में अयूथया थी, वहां राजा राजा राम भी हुए थे, उनका प्रमाण भी है, वहां के लोग पूजते भी है लेकिन उसे भारत में कहानी से सच माना जाए इसलिए साकेत नाम के छोटे से शहर का नाम बदला गया, और उसका नाम अयोध्या रखा गया, अब दूसरी दिक्कत हुई कि उसके पास एक नदी बहती थी, इसीलिए अयोध्या के पास की घाघरा नदी का नाम बदल कर सरयू किया गया ताकि उसे इंडोनेशिया की फरयो नदी से मिलाने के लिए सरयू किया गया, आज भी सरयू के अयोध्या वाले हिस्से को सरयू कहा जाता है बाकि सब जगह घाघरा ही है, यहाँ तक की जमीन रिकार्ड्स में भी। और वैसे भी अगर कोई अयोध्या से दक्षिण की तरफ जाएगा तो सरयू उसके उत्तर में होगी और पार करने की जरूरत नहीं पड़ेगी फिर ये कौनसी सरयू थी जिसे राम सीता ने नाव में पार किया था?



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भाग दौड़ कर हस्तिनापुर भी मिल गया लेकिन वहां कोई पांडव महल न मिले तो बात कवर करने के लिए वहां मंदिर बनवाये गए, वरना एक आम इंसान भी सोच सकता है की हज़ारों साल पुराने मेरठ शहर के होते हुए भी कोई राजा मेरठ को राजधानी बनाएगा या एक गंगा के सैलाब के एक छोटे से गाँव को। और इसके साथ ही अगर दिल्ली और हस्तिनापुर की सेनाओं में अगर टक्कर होगी तो वो दिल्ली और हस्तिनापुर के बीच के किसी इलाके में होगी न कि पंजाब बॉर्डर के किसी छोटे से शहर में, जिसके लिए कोई नदी करने पड़े। अच्छा सॉरी भूल गया था कि कुरुक्षेत्र जैसा की किताबों में लिखा है, एक क्षेत्र है न कि कोई शहर फिर हरयाणा में इस नाम का शहर कहाँ से आ गया? जवाब है कि कहीं से नहीं आया बल्कि 1950 मे आजादी के बाद बदला गया पहले इसका नाम थानेसर या स्थानेश्वर था।


बुध भी इंडोनेशिया ने ला कर नेपाल में पैदा किया गए, वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि भारत में पैदा हुए एक इंसान का धर्म सारे दक्षिण पूर्व एशिया में फ़ैल गया लेकिन भारत में ही न फैला? जवाब है कि वो कभी भारत के थे ही नहीं, वो थाईलैंड में पैदा हुए थे, और कार्यक्षेत्र और भारत के बीच में एक तरफ समंदर था और एक तरफ हिमालय। इसी लिए बोध धर्म भारत नहीं आ पाया जब तक कि आधुनिक काल में लोगों ने आना जाना शुरू नहीं किया। ये बात हाल ही में हुई एक स्टडी में साबित हो चुकी है जिसका रिसर्च पेपर साथ में लगा दिया है !

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भारत के दक्षिण में एक बड़ा द्वीप है जिसमें बड़े पैमाने पर सिंहली लोग रहते है इसीलिए इसे सिंहल द्वीप कहा जाता था, अंग्रेजों ने इसे अपना उपनिवेश बनाया तो उच्चारण की समस्या होने की वजह से इसे सीलोन कहना शुरू कर दिया और बाद में एशियाटिक सोसाइटी ने इसे रामायण की लंका कह दिया क्यूंकि इसका एक नाम श्रीलंका भी था जिसका कारण हिन्दू धार्मिक न होकर प्राचीन सिंहली धर्म से जुड़े है, बाद में इस सीलोन का आधिकारिक नाम बदल श्रीलंका कर दिया गया जिससे इसे और बल मिला। अगर आपको रामायण सच्चा लगता है तो लंका ढूंढिए न कि सिंहलियों का श्रीलंका, वैसे भी राक्षस नगरी के नाम के आगे श्री कौन लगाता है ? और हमने तो आज तक श्री अयोध्या कहीं नहीं पढ़ा जबकि वो तो भगवान की जन्मस्थली है।


लोगों की चिपके रहने के लिए कट्टर धर्म की जरूरत होती है, उदार धर्म अक्सर जल्दी ख़त्म हो जाते है ये बात मैक्स मूलर को पता थी, इसलिए उसने राम को ठीक उसी शहर के उसी इलाके में उसी मोहल्ले के उसी महल में और कमरे में पैदा करवाया जहाँ एक जमाने में संत बाबरी देवी ने एक मस्जिद और एक मंदिर साथ साथ बनवाये थे, और बाबरी देवी के नाम पर उसे बाबरी मस्जिद कहा जाता था। पहले मैक्स ने फिर मैकाले ने और लैंसडौन ने ये खूब कहा की ये बाबरी मस्जिद इस लिए है क्यूंकि यहाँ राम का मन्दिर तोड़ कर मस्जिद बना दी थी। इतिहास कहता है की बाबर उस साकेत में कभी नहीं आया था, आता भी तो एक मंदिर थोड़ी तोड़ता, उसी के बगल का दूसरा मंदिर भी तोड़ता, और साथ ही शहर और रास्ते के सारे मंदिर भी लेकिन धर्म के सामने इतिहास कहाँ चलता है। सो धर्म की बात ही मानी गयी।


आगे ज़माना उन लोगों का था जो एक एक करके अंग्रेजों के चलाये उन कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज से निकले थे, कई तो पढ़ने के लिए लंदन तक गए, वापस आये तो कोन्ग्रेस बनी, महासभा भी बनी और संघ भी, अब इन्हे चाहिए था की ये अपने धर्म की रक्षा करते, जो बदलाव एशियाटिक के लोगों ने मैक्स के साथ मिलकर किये थे उन्हें वापस करते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्यूंकि उनकी आँखों में पेशवा राज को वापस लाने का सपना था, लोगों का अंध भक्त होना जरूरी था, उनका मुस्लिमों से सताया हुआ होना जरूरी था सो उन्होंने जैसा था वैसा ही रहने दिया वैसे भी अपने मालिक अंग्रेजों से कौन पन्गा लेता?



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वक़्त बदला, अंग्रेज चले गए लेकिन सिलसिला नहीं बदला, उनके जाते ही जनता को कुछ एक्साईटिंग चाहिए था सो मस्जिद में मूर्ति पैदा करा दी गयी, वो भी काम पड़ा तो कथाएं शुरू हुई, टीवी आया तो माता संतोषी के सीरियल शुरू किये गए ताकि जनता को फुर्सत न मिले, कभी किसी बड़ी बूढी से मिलो तो पूंछना की सबसे पहले करवा चौथ कब शूरु हुआ था, पता चलेगा की ये 70 के दशक के बाद शहरों की औरतों ने टीवी देखकर रखना शुरू किया था और उसके बाद धीरे धीरे रिश्तेदारियों के माध्यम से गाँवों तक पहुंचा, याद कीजियेगा कि आपके बचपन में कितने लोग कावड़ लेने जाते थे, इसके बाद भी एक एक करके रामायण, महाभारत, श्रीकृष्ण के सीरियल और फ़िल्में बनाए गए, नये भगवन लॉन्च किये गए जिनमे से साईं बाबा कुछ दशक पुराने और मोदीश्वर लेटेस्ट वाले है।

आप सोचते हो कि ये भक्त क्यों सुनते समझते क्यों नहीं है, अरे भाई उनके पीछे 2 सदियों से मेहनत हुई है सिर्फ भक्त बनाने के लिए हज़ारों लाखों करोड़ का बजट खर्च हुआ है तब जाकर भक्त बने है ऐसे कैसे सुनेंगे?



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और हाँ आखिर में, उसी कलकत्ता यूनिवर्सिटी से निकले बंकिम चंद्र चटर्जी ने जो गीत लिखा था न शस्य स्यामलामं मातरम, वो कोई भारत भूमि के लिए नहीं लिखा जनाब, उन कहानियों की मात्र भूमि इंडोनेशिया के शहर मातरम के लिए लिखा है जो ठंडा रहता है।


वरना कलकत्ता में कब से और किस मौसम में ठंडी शीतल हवा बहने लगी भाई? पता लगे तो कमेंट में बता देना।


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