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क्या संघ असल में मराठा पेशवा राज को वापस लाने की कोशिश में है? पढ़िये विश्लेषण!

चलिए आपको एक किस्सा सुनाते है। एक बार एक जागीरदार थे, नाम शाहजी भोसले।


इनकी जागीर बीजापुर और गोलकुंडा के बीच में पड़ती थी, जागीरदार थे लेकिन उससे ज्यादा थाली के बेंगन थे। कभी दिल्ली की मुग़ल सल्तनत की फ़ौज की कमान सँभालते थे तो कभी अहमदनगर की तरफ हो जाते तो कभी बीजापुर की तरफ से मुगलों से लड़ते, बस यूँ ही शुरुआती जिंदगी कटी।


इनके घर में फ़रवरी 1630 में एक बेटा हुआ, नाम रखा गया शिवा जो बाद में शिवाजी हुआ।


अब शिवाजी को इस तरह हर दहलीज की चप्पल सीधी करने की आदत न थी सो बगावत कर दी, और वो भी सीधा मुगलों के खिलाफ, जाहिर है की बड़ा कदम था। लेकिन जेसा की होता है, कहीं कामयाब हुए कहीं हारे लेकिन आखिर में अपना खुद का एक राज्य बनाने में कामयाब हुए, मराठा साम्राज्य। अब एक अकेले का दिल्ली से टकरा कर अपना राज बनाना ही उस वक़्त में छोटा काम न था सो महान कहलाये, छोटी मोटी बातें भुला दी गयी जैसे की अपने ही जीवन में बाप को मुगलों के हाथो गिरफ्तार होने से न बचा पाना वो भी जब बेटा उन्हें टक्कर देने की हिम्मत रखता हो।



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1680 में 50 साल की उम्र में चल बसे और उनके बाद उनके बेटे संभाजी को जुलाई 1680 में राजा बना दिया गया लेकिन कहते है न की जरूरी नहीं बेटा बाप जितना ही होनहार हो, सो औरंगजेब के सामने न टिक सके और गिरफ्तार हो गये और वही मृत्यु को प्राप्त हुए। उनके बाद उनके बेटे साहूजी को भी मुगलों ने कैद कर लिया और गद्दी खाली हुई तो राज्य के छिनने का खतरा हुआ इसीलिए संभाजी की सौतेली माताश्री ने अपने बेटे राजराम को 1689 में राजा बना दिया जो उस समय तक नाबालिग ही थे, साहूजी औरंगजेब के

शिवाजी महाराज - एक्चुअल पेंटिंग मरने तक जेल में रहे और औरंगजेब के बाद छूट कर वापस पुणे पहंचे।



गद्दी के लिए मारामारी मची, उस वक़्त राजाराम की विधवा तारा बाई मराठा साम्राज्य को संभाल रही थी। साहू के वापस आने की खबर मिली तो उन्हें मारने सेना भेज दी, सेना की टुकड़ी के कमांडर थे बालाजी विश्वनाथ। साहू जी के सामने जा कर मारने के बजाय बाहुबली के कट्टप्पा बन गये और नमक का क़र्ज़ अदा करते हुए साहूजी को राजा घोषित कर दिया।


साहूजी इससे बड़े खुश हुए और राजधानी लौट कर जब 1708 में राज संभाला और इनाम के तौर पर विश्वनाथ को अपना पेशवा बना दिया, पेशवा यानि मंत्री या सलाहकार। ये पेशवा पद शुरू में भले ही छोटा सा था लेकिन बाद में जब छत्रपति राजा कमजोर हुए तो पेशवा ताकतवर होते चले गये, अब ये मंत्री से बढ़ कर अधिपति, सेनापति, और बहुत कुछ बन गये यानि कहें तो आल इन वन। छत्रपति सिर्फ नाम के राजा थे और असली ताक़त पेशवा के हाथ में होती थी और वो ही ये तय करते थे की आगे कैसे राज चलेगा। पेशवा के ओहदे को सबसे ज्यादा ताकत पेशवा बजीराव के जमाने में मिली।



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लेकिन एक कमी थी, पेशवाई चाहे कितनी भी ताकतवर क्यूँ न थी, आखिर छत्रपति की गुलाम थी और उन्हें अपनी ताक़त को राजा के सामने झुकाना पड़ता था। ये कट्टर ब्राह्मण खून को मंजूर न था, इसीलिए कहीं न कहीं छत्रपति से पीछा छूडाने की छटपटाहट जरूर थी।


वक़्त गुजरा, साम्राज्य फैलता चला गया, मुग़ल कमजोर पड गये और एक बार तो मराठो के अंडर में भी आ गये, अब पेशवा ने शासन चलने के लिए अलग अलग रियासतों में अपने सरदार नियुक्त कर दिए, पेशवा बाजीराव!

जैसे इंदौर में होलकर, ग्वालियर में सिंधिया(वही आपके भाजपा वाले), नागपुर में भोसले, बड़ोदा में गायकवाड।


इन्हें बनाया तो सरदार गया था लेकिन धीरे धीरे अपने क्षेत्र के रजा बन बैठे, वैसे ही जैसे पेशवा मंत्री से सर्वेसर्वा बने थे। इन्होने अपने अपने यहाँ खूब ग़दर मचाया और लोगों से रंगदारी तक वसूली और पेशवा को एक पैसा तक लौटा कर न दिया, इनमे से सिधिया तो आज तक ग्वालियर के मालिक बने हुए है।



ध्यान रहे की जनता को लगतार अपने नीचे बनाये रखने और सिपाही को लड़ते रहने के लिए एक अफीम की जरूरत होती है, और यही अफीम छत्रपति को भो चाहिए थी की हम भारत में मुस्लिमों का राज ख़त्म करके हिन्दू शासन ला रहे है इसीलिए लड़ते रहना जरूरी है, बस फिर क्या था जनता भी खुश राजा ने भी नये इलाको में लडाइयों की मंजूरी दे दी और सिपाही भी तलवार लाकर धर्मयुद्ध में खुश, हिन्दू राष्ट्र तो बचाना था। ये दूसरी बात है की दिल्ली के उस वक़्त के नाकारा राजाओ को पेशवा ने ही पनाह दे रखी थी लेकिन धर्मं का अँधा ये क्यूँ देखेगा, उसे तो लड़ना था।


अब इसी बीच अंग्रेज देश में अपना कब्ज़ा बढाने लगे, मराठे चाहते तो उस वक़्त पूरी ताक़त में थे, अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बजा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा न करके अंग्रेजों के खिलाफ टीपू सुलतान के खिलाफ जाना चुना। शायद इसलिए क्यूंकि उसने केरल में स्तन टैक्स को ख़त्म करवा दिया था या शायद इसलिए कि 1761 में मराठों ने पानीपत में अहमद शाह दुर्रानी के हाथो एक शर्मनाक हार झेली थी और अपने एक पेशवा को खोया था और इसके बाद वो मुसलमानों को पेशवाई पर एक खतरे के रूप में देखने लगे थे।



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बहरहाल 1791 में अग्रेज टीपू सुल्तान के खिलाफ जंग हार चुके थे और उन्हें कुछ नयी फ़ौज चाहिए थी उधर मराठे भी ऐसे मौके की तलाश में थे जिससे वो टीपू नाम के कांटे को उखाड़ फेंके, दो साल बाद 1793 में मराठों, अंग्रेजों और हैदराबाद के निजाम की मिली जुली सेना ने मैसूर पर हमला किया और सुल्तान को हरा दिया, संधि हो गयी लेकिन बाद में 1799 में अंग्रेजों ने खुद की ही संधि के खिलाफ जा आकर टीपू पर हमला कर दिया और सुल्तान की मौत हो गयी। इसके बाद भी मराठे कोई यहीं नहीं रुके, तब तक अंग्रेजों का साथ देते रहे जब तक कि अंग्रेजों ने उनके साम्राज्य को ही 1818 में पेशवा बाजीराव-2 को हरा कर ख़त्म नहीं कर दिया।


उसके बाद भी सीधे मराठे न सही तो उनके चमचो ग्वालियर के सिंधिया परिवार ने 1857 में झाँसी की लडाई में अंग्रेजों के खूब तलवे चाटे, मकसद साफ़ था की भारत को हिन्दू भूमि बनाना है, वही झूठा गौरव। लेकिन कहते है न की सब प्लान कामयाब नहीं होते, इतना होने के बाद भी अंग्रेजों को भारत पर कब्ज़ा करना था और उसके लिए सारे राजे महाराजाओं का साइड में होना जरूरी था सो हो गया और अखंड हिन्दू भारत का सपना अधूरा ही रह गया। लेकिन फिर भी अंग्रेजों की चापलूसी में कोई कमी न रही, हाँ इसका फायदा ये हुआ की 1857 ग़दर के बाद अंग्रेजों ने मुस्लिम रजवाडो को बड़ा सख्ती से ख़त्म किया तो हिन्दू रजवाडो को पेंशन दे कर आराम से छोड़ दिया।


खैर वक़्त बदला और हालात बदले, बीसवी सदी एक चौथाई गुजरने को आई, हिन्दू, या यूँ कहें की ब्राह्मण राजपूत रजवाड़े मजे कर रहे थे तो दूसरी तरफ मुस्लिम रजवाड़े ख़त्म होने के बाद उनके नेताओं ने अपने लिए कुछ सोचना शुरू कर दिया और जामिया दिल्ली और AMU अलीगढ जैसे संस्थान सामने आये,और 1905 में मुस्लिम लीग जेसी पार्टी भी खड़ी हो गयी जबकि अभी कांग्रेस अंग्रेजों की पिट्ठू से ज्यादा कुछ नहीं थी। अंग्रेजों के वापस जाने के लक्षण भी दिखने लगे तो चित्पवानी ब्राह्मणों के कान खड़े हुए, एक डर लगा की कहीं ये पहले की तरह अंग्रेजों के जाने के बाद मुग़ल राज न आ जाए, एलीट तबके का मानना था की अंग्रेजों ने भारत की सत्ता मुगलों से नहीं बल्कि मराठी से छीनी थी जिसे वापस उनके हाथ में ही आना चाहिए था।



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महासभा की सोच को रिप्रेजेंट करती एक पिक्चर!


महादेव रानाडे, गोपाल गोखले, गंगाधर तिलक, मदन मालवीय जेसे सेंकडो खड़े हुए, संसथान बनाये गये और साथ ही सामने आई हिन्दू महासभा, एक कट्टर व्राह्मणों की संस्था, मकसद था मराठो को सत्ता को या यूँ कहें की पेशवाई को रिज्यूम करना था, रजवाडो का लालच दिया गया की हमारी मदद करो और हम आजादी के बाद तुम्हे अंग्रेजों से पहले वाला जागीरदार वाला ओहदा देंगे और फिर खूब वसूलना रंगदारी। बात जम गयी और खूब पुराने खजाने खोद कर दान दिए गये। ग्वालियर वाले ने तो महल में गड़े खजाने का आधा हिस्सा ही दान कर दिया। बात चलती रही और कुछ साल बाद सामने आया संघ, कट्टर चित्प्वानी ब्राह्मणों का कट्टर संगठन, मकसद था ब्राह्मण राज स्थापित करना।


अंग्रेजो की गुलाम कांग्रेस ने प्रजशाही का सुझाव दिया जिसमें सब का शासन हो लेकिन गौरवशाही को ये मंजूर न था क्यूंकि उन्हें तो पेशवा राज चाहिए था, और वो तब तक कायम नहीं हो सकता था जब तक देश में मुस्लिम है, इसीलिए हिन्दू महासभा ने 1927 में पाकिस्तान का प्रस्ताव दिया ताकि हम अलग होकर अपना पेशवा राज बना सकें, मजूर भी हुआ लेकिन फिर सत्यानाश, अंग्रेजों ने विभाजन मंजूर तो किया लेकिन आबादी के आधार पर। अब ब्राह्मण तो मुट्ठी भर थे, इसीलिये हिन्दू नाम का नया धर्म गढ़ा गया और सारे शुद्रो को इसमें शामिल किया गे ताकि मुस्लिमों से ज्यादा आबादी दिखाई जा सके, खूब अंग्रेजों की चापलूसी की गयी, जनता को अपने पक्ष में करने के पुराने गौरव की कहानिया सुनाई बताई गयी, शिवाजी के गौरव और सेकुलरिज्म को बताया गया और हैदर अली का छुपा लिया गया।


झाँसी की रानी को गाया गया लेकिन बेगम हज़रत महल को दबा दिया गया, मंगल पांडे क्रन्तिकारी बने तो मौलाना अहमदुल्लाह शाह को भुला दिया गया। टीपू को तो बाकायदा हिन्दू विरोधी साबित किया गया, पुरानी खुन्नस जो ठहरी। मकसद साफ़ था, छत्रपति का राज नहीं बाकि पेशवा का राज जिसमे वो अपनी मर्जी से चल सकें ,खूब रंगदारी वसूल सकें, खूब श्रीरंगापत्तिनम के मंदिर तोड़ सके।


बाजी फिर उलटी पड़ी, देश तो आज़ाद हुआ लेकिन अंग्रेजों ने सत्ता की चाभी उन्हें सोंपी जो उनके पीछे रह जाने वाली कम्पनियों को ज्यादा बेहतर सुरक्षा दे सके, जाहिर है की रंगदारी के माहौल में यूरोपियन कम्पनियां केसे काम करती सो हठधर्मिता ले डूबी और सत्ता नेहरु के हाथ में गयी, महसभा टेंशन में।


खुन्नस में गाँधी भी गये तो संघ पर बैन लगा, नेहरु ने भांप लिया कि आज न कल ये सर उठाएंगे तो सारे रजवाडो को विश्वास में लेना शुरू किया, ग्वालियर के जीवाजी को कांग्रेस में शामिल होने का न्योता भेजा जो महासभा में थे। मन से महासभाई थे तो छोड़ते कैसे और प्रधानमंत्री की बात टालते कैसे तो खुद न सही पत्नी को कांग्रेस में भेज दिया, वही ग्वालियर की राजमाता जी। चुनाव लड़ नही सकते थे तो 1951 में जन संघ के नाम से नयी पार्टी बनायीं, जो बाद में जनता पार्टी और 1980 में भारतीय जनता पार्टी बन गया। इंदिरा का दौर आया तो वक़्त मुश्किल हो गया।



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इंदिरा ने एक ही झटके में सबकी पेंशन बंद कर दी, अब जेब में पैसा नहीं तो अभियान कैसे चलायें, ऊपर से जो जमा पूंजी थी वो भी संजय गाँधी ने एक के बाद एक रजवाडो पर छापे डाल कर जब्त कर ली, जयपुर के घराने पर पड़े छापे पर खूब हल्ला भी हुआ। राजमाता वापस संघ में चली गयी लेकिन इंदिरा ने गिरफ्तार कर लिया और बेटे माधवराव सिधिया को माँ के खिलाफ चुनाव लडवा दिया। संघ अपने रास्ते चलता रहा और उसे के चिल्लर सा कांग्रेस का उठाया गया राम मंदिर का मुद्दा मिल गया जिसे उसने पूरे देश में भुना लिया, पहले अंग्रेजों से संधि की थी अब अमेरिका से अलायन्स कर लिया और लिबरल बन गये।



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अमेरिका से नए नेताओं की लिस्ट मांगी गयी तो मोदी साहब को भेजा गया जिन्हें वहां ट्रेनिंग मिली। अब बस सही मौके की तलाश थी, सत्ता हाथ लगी तो पेशवाई लागू करने में कोई कसर न छोड़ी। लोगों को जाहिल बना कर पुराने मराठा दौर में ले जाया गया, अर्थव्यवस्था का भट्टा बिठाया गया, ब्राह्मणों का विकास सुनिश्चित किया गया, सिंधिया जी भी मौका देख कर वापस बीजेपी में पहुँच गये, और बाकि तो आप सब जानते ही है। प्रधानमंत्री से पेशवा बनने की कोशिश जरी है, संविधान की हत्या हो रही है, दलितों को महार और केरल का शुद्र बनाया जा रहा है, मुस्लिमों से सदियों पुराना बदला लिया जा रहा है।


हाँ अलबत्ता एक बात है जो आप भूल गये....


पेशवाई बहुत दिन तक आपके वोट की मोहताज बनना पसंद नहीं करेगी, उसे तो खुल्ले में अपनी मर्जी से शासन चलाने की आदत है। एक ऊंचा महल बना कर जनता से चौथ वसूलने की आदत....



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