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मौलाना अहमदुल्लाह शाह - एक महान क्रन्तिकारी जो साजिशों का शिकार हुआ!!

झाँसी की रानी लड़ी थी लेकिन अपनी झाँसी बचाने के लिए, मराठे लड़े होंगे लेकिन अपना मराठवाड़ा बचाने के लिए, वैसे तो लड़े ही नही थे उल्टा टीपू के खिलाफ अंग्रेजों से साथ लड़े थे। जो भी लड़ा अपना राज पाट बचाने को लड़ा, लेकिन वो एक ही था जिसे न राज चाहिए था न गद्दी यहाँ तक की उसने तो सत्ता में पद मिलने पर उसे ठुकरा दिया और निकल पड़ा अपने मुट्ठी भर सिपाहियों के साथ गोरों के खिलाफ,


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लम्बा चौड़ा, हट्टा कट्टा इंसान, मुड़ी हुई नाक गहरी आँखें गोल भोहें और लम्बी ठोड़ी, वो मौलाना भी था और बागी भी था। लड़ना जानता था और दीन में भी कमजोर न था, कई भाषाये जानता था, कभी नक्कार शाह बन जाता था तो कभी डंका शाह तो कभी वापस मौलाना, जब साथी हुए तो लड़ा जब अकेला हुआ तो हुकूमत के खिलाफ पर्चे बांटे, लोगों ने आरोप भी लगाये की ये आदमी खुद को मौलाना और दुर्वेश कहता है लेकिन हुकूमत के खिलाफ जहर उगलता है।


सारी उम्र लड़ा और कभी जिन्दा पकड़ में नहीं आया, मौत भी आई तो तब जब दोस्त ही गद्दारी कर बैठा।


रुकिए, ये सब मैं नहीं कह रहा, ये तो अंग्रेज कर्नल जी बी मेल्सन ने लिखा है अपनी किताब में। उन्हें अवध की ग़दर का लाइट हाउस कहा गया था, खुद दुश्मन इतनी तारीफ करते थे तो सोचो दोस्त कैसे रहे होंगे, मेल्सन आगे लिखते है की -


A man of great abilities, of undaunted courage, of stern determination, and by far the best soldier among the rebels.


यानि - महान क्षमताओं का एक व्यक्ति, अदम्य साहस का, दृढ़ निश्चय का, और विद्रोहियों के बीच सबसे अच्छा सैनिक।


मौलाना अहमदुल्लाह शाह(مولانا أحمدلله شاه ) के पिता हैदर अली की फ़ौज में सिपाही थे, मूल रूप से हरदोई के रहने वाले थे, बाद में अर्काट के नवाब के करिंदे बने, वही पर 1787 अहमदुल्लाह शाह पैदा हुए, इस्लाम भी पढ़ा और लड़ना भी सीखा, ईरान इराक, सोवियत, इंग्लैंड गये और हज भी किया, वापस आये तो ग्वालियर के एक सूफी पीर के मुरीद हुए और अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने का मकसद मिला।


मौलाना का मानना था की आजादी के लिए लड़ कर जीतना जरूरी है और उसके लिए सभी साथियों का अनुशासित होना जरूरी है। आप अपना मकसद लिए हुए दिल्ली, लखनऊ, पटना, और कलकत्ता गये। पर्चे बांटे, नाम भी बदले और जल्दी ही सरकार की हिट लिस्ट में आ गये।


आज तक हमने यही पढ़ा की 1857 की क्रांति बैरकपुर से शुरू हुई लेकिन वो उत्तर प्रदेश कैसे पहुंची ये मौलाना का कमाल था। जब मौलाना अवध फैजाबाद पहुंचे तो अवध अंग्रेजों के कब्जे में जा चूका था, मौलाना ने लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ भड़काना शुरु किया और बाद में पटना में गिरफ्तार हुए, देशद्रोह का केस लगा और मौत की सजा हुई। लेकिन उससे भी पहले उनकी कोशिशें रंग लायीं और ग़दर भड़क उठी, साथियों ने छावनी पर हमला किया और छुड़ा ले गये।


वहां से आप फिर से लखनऊ गये जहाँ बेगम हज़रत महल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रही थी। बेगम के खास बन गये। लखनऊ तब अंग्रेजों के कब्जे में था। मौलाना और बरकत अली अवध की फ़ौज के सिपहसालार बनाये गये और लखनऊ पर हमला किया, अंग्रेजों की तरफ से कर्नल कोलिन कैम्पबेल थे, जो अपने वक़्त के जाने माने फौजी कर्नल थे, उन्हें लखनऊ छोड़ना पड़ा और लखनऊ में बेगम हज़रत महल और वाजिद शाह के बेटे को नवाब बनाया गया।


मौलाना को दरबार में ओहदा ऑफर किया गया जो उन्होंने क़ुबूल नही किया क्यूंकि उनका मकसद आज़ाद अवध नहीं बल्कि आज़ाद हिंदुस्तान था। साथियों के साथ शाहजहांपुर की तरफ कूच कर गये, वहां नाना साहिब(झाँसी की रानी के खास) और खान बहादुर खान के साथ बरेली और शाजहंपुर के पास डेरा डाला। उधर लखनऊ में अंग्रेजों ने वापसी चढ़ाई कर दी और लखनऊ वापस ले लिया और कर्नल कैम्पबेल ने मौलाना और उनकी 1200 साथियों की टुकड़ी का पीछा किया।


2 मई 1958 को मौलाना ने शाजहंपुर पर चढ़ाई करके अंग्रेज ब्रिगेडियर जॉन को वहां से भागने पर मजबूर कर दिया। 20 मई को कैम्पबेल ने शाहजहांपुर पर चढ़ाई कर दी, पूरी रात की जंग के बाद जब अंग्रेज फ़ौज ने शहर को चारो तरफ से घेर लिए तो मौलाना ने नाना साहिब के साथ शहर छोड़ दिया। कर्नल कैम्पबेल ने खुद मौलाना का पीछा किया लेकिन न पकड़ सका।


मौलाना ने वहां से निकलने के बाद पोवाई की रुख किया जो वहां से लगभग 30 किमी दूर है, वहां के राजा जगन्नाथ सिंह मौलाना के खास थे। मौलाना मदद के लिए उनके पास पहुंचे और हाथी पर सवार किले के गेट के सामने खड़े होकर अन्दर आने की कोशिश की, लेकिन दोस्त की नज़र कुछ और थी।


सरकार ने मौलाना पर पचास हज़ार चांदी के सिक्को का इनाम रखा था, जिनका लालच दोस्ती की कीमत से ज्यादा हो गया, राजा ने निहत्थे मौलाना पर तोप से फायर किया और मौलाना अगले पल जमीन पर पड़े थे। बाद में उनका सर काट कर अंग्रेजों की शान में पेश किया गया और बदले में चांदी के सिक्के और सारी उम्र के लिए अंग्रेजों की हमदर्दी ले ली गयी।



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अगले दिन से मौलाना का सर कोतवाली पर टांग दिया गया जिससे लोगों को सबक सिखाया जा सके। उनकी मौत को आँखों से देखने वाले शायर फजले हक खैराबादी लिखते हैं की जगन्नाथ में इतनी भी हिम्मत न थी की सामने से आकर सिपाहियों के साथ मौलाना को गिरफ्तार कर सकता इसीलिए अन्दर से बिन बताये फायर करवा दिया गया। जी बी मेल्सन ने लिखा है की वो अकेला ही था जिसने कैम्पबेल को दो बार आमने सामने से चैलेंज किया और हराया भी। वो अकेला ही था जिसने सही मायनों में अंग्रेजों से जंग लड़ी, वरना कोई अपने राज के लिए लड़ा तो कोई अपने धर्म के लिए और किसी ने अपने लिए अपनों से ही गद्दारी की।


Thus died the Moulvee Ahmed Oolah Shah of Faizabad. If a patriot is a man who plots and fights for independence, wrongfully destroyed, for his native country, then most certainly, the Moulvee was a true patriot.


और इस प्रकार फैजाबाद के मौलवी अहमद औला शाह की मृत्यु हो गई। एक देशभक्त एक ऐसा व्यक्ति, जो अपने देश के लिए, स्वतंत्रता के लिए और जमीन के लिए लड़ा, धोखे से मारा गया। निश्चित रूप से, मौलवी एक सच्चे देशभक्त थे।

-जी बी मेल्सन


ये सारी जानकारी मौलाना के विकिपीडिया पेज से ली गयी है, किस भी शक को आप खुद गूगल विकिपीडिया पर जाकर कन्फर्म कर सकते हैं।


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