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अल्लामा फ़ज़्ले खैराबादी - जिन्हे माफ़ी माँगना मंजूर नहीं था, मरने तक भी।

एक ऐसा शख्स जो शायद सावरकर वाला हुनर जानता तो जिन्दा बच सकता था, और वो तो बड़ी बात है अगर वो झूठ भी बोल सकता तो अंग्रेज उसके दोस्त हो जाते और रिश्वत लेता तो शायद छोटे मोटे रजवाड़े से ज्यादा दौलत उसके क़दमों में रख दी जाती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।


उसने ऐसा नहीं किया क्यूंकि वो जनता था कि उसे दौलत नहीं कौम के भले की चिंता करनी है, उसे देश को आजाद करना है, वो कई भाषाओँ का जानकार था, वो प्रोफेसर था, अच्छे घराने में पैदा हुआ था, 13 की उम्र में भाषाओ का ज्ञान पा लिया था, अगर अंग्रेजों की वकालत भी करता रहता तो नवाब होता।


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मौलाना मुफ़्ती फजल-ए-खैराबादी, आप का जन्म 1796 में उस वक़्त के अवध के सीतापुर जिले के खैराबाद में हुआ था, आपके पिता शाह अब्दुल अज़ीज़ सदरुल-सदर थे जो उस वक़्त के मुग़ल बादशाहों को मजहबी मामलों की सलाह दिया करते थे। बाद में अज़ीज़ साहब अदालत में जज भी हुए।


आप पढ़ने में जहीन थे और सिर्फ 10 साल की उम्र में हाफिज बन गये थे और 13 की उम्र तक चार भाषाओँ का ज्ञान पा चुके थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद आपने पढ़ाने का काम शुरू किया और महकमा-ए-क़ज़ा में मुफ़्ती के ओहदे पर मुक़र्रर किये गये।


20 साल की उम्र में 1816 में आपने अंग्रेजी सरकार में सिविल अदालत में अधिकारी बन कर नौकरी शुरू कर दी लेकिन बाद में अपने मुल्क के हालात देख कर नौकरी से 1831 में इस्तीफ़ा दे दिया और योजनायें बनाने लगे, उसी वक़्त आप की मुलाक़ात वक़्त के आलिम विद्वानों जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब, और मुफ़्ती सफरुद्दीन से हुई और आप उनके साथ वक़्त बिताने लगे।


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बाद में आपने कुछ वक़्त मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर की अदलत में नौकरी भी लेकिन बाद में वहां से भी इस्तीफ़ा देकर झज्जर के नवाब के यहाँ जाने का फैसला किया। मौलान साहब के दिल्ली छोड़ने का बादशाह को बहुत दुःख हुआ जिसे उन्होंने कई दफा ज़ाहिर भी किया।


हालाँकि कुछ वक़्त बाद झज्जर के नवाब की मौत हो गयी तो आप वहां से सहारनपुर के नवाब और फिर रामपुर के नवाब के यहाँ भी रहे और आखिर में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के यहाँ 1856 में नौकरी कर ली। जो अंग्रेजों के खिलाफ अभियान चला रहे थे और मुख्य तौर पर इस अभियान को उनकी पत्नी बेगम हज़रत महल लीड कर रही थी।


बेगम का जंगी प्रशासन मौलाना अहमदुल्लाह शाह के हाथों में था तो आप उन्ही के साथ शामिल हो गये और अंग्रेजों के खिलाफ मुहीम छेड़ दी और उनके राडार पर आ गये।



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1857 के ग़दर से ठीक पहले जब क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए बादशाह बहादुर शाह से दरख्वास्त की तो बादशाह ने फजल-ऐ-हक साहब से ग़दर में आने के लिए कहा। इसके बाद आप दिल्ली गये और बादशाह के साथ वक़्त के कई और बड़े क्रांतिकारियों से मुलाकात की जिनमे उस वक़्त के बड़े लीडर जनरल बख्त भी शामिल थे।


कहते है कि जनरल बख्त ने ही खैराबादी साहब की अंग्रेजो के खिलाफ फतवे की रणनीति दी थी जिसके बाद उन्होंने देश के तमाम मुसलमानों के नाम ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जिहाद का एक फतवा तैयार किया जिस पर उस वक़्त के कई बड़े उल्माओं ने दस्तखत किये थे।


ये फतवा अप्रेल 1857 में दिल्ली सब आलिमों, नेताओ, और बादशाह की सहमति के बाद दिल्ली की जामा मस्जिद से जुमे की नमाज़ के बाद जारी किया गया जिसे अगले दिन उस वक़्त के बड़े अख़बारों ने कवर किया था।


इस फतवे ने गदर की तय्यारियों में आग में घी जेसा काम किया और देश भर के लाखों मुस्लमान एक झटके में अंग्रेजों के खिलाफ आ खड़े हुए। और ऐसा नहीं था कि सिर्फ मुस्लिम बल्कि इस जंग में देश भर से सभी मजहब के लोग शामिल हुए मगर बड़े नेताओं में पूरे देश में सिर्फ यही एक धड़ा था बाकि सब या तो अपने अपने राज्य बचाने के लिए लडे ( जैसे झाँसी की रानी) या उन्होंने अपना राज बचाने के लिए अंग्रेजों से संधि कर ली थी(जेसे राजस्थान और ग्वालियर के रजवाड़े या मराठे)

हर मजहब के देशभक्तो के बीच में लड़ने वाले जिगर फरोश तो सब थे लेकिन उन सब को लीड करने वाले अकेले आलिम ही थे और कोई बड़ा नेता नहीं था। अगर आपको लगता है कि इस फैक्ट में कोई गलती है तो आप कमेंट सेक्शन में 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले किसी बड़े नेता का बता सकते है जो जो किसी और मजहब का हो, आपको नहीं मिलेगा क्यूंकि अंग्रेजो से सिर्फ जनता को बचना था और बाकि सब अपना अपना राज बचाने में जुटे थे।


खैर, क्रांति हुई, लड़ाईयां हुईं लेकिन ये सब कमजोर आपसी संगठन की कमी की वजह से नाकामयाब हुआ और अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया, बादशाह को रंगून भेज दिया गया उनके बेटों के सर काट कर उनके सामने थाल में पेश किये गये और बाकि क्रांतिकारियों में से जो हाथ आये उन्हें मार डाला गया।



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इसे बाद ही लोगों की एकता को देख कर अंग्रजों ने बांटो और राज करो की पालिसी पर काम किया। इसके बाद उन्होंने हिन्दू रजवाडो को प्यार से डील किया तो मुस्लिम नवाबो और नेताओं पर नज़रें टेढ़ी कर लीं। शायद उनके खिलाफ क्रांति का रही अंजाम था, यही वो वक़्त था जब मेरठ से दिल्ली तक रास्ते में कोई ऐसा पेड़ न था जिस पर किसी उलमा की लाश न लटकी हो, जहाँ भी कोई आलिम दीखता तो उसे या तो तोप से उड़ा दिया जाता या सूअर की खाल में लपेट कर जिन्दा आग में भून दिया जाता था। कई इतिहासकार लिखते है कि एक वक़्त ऐसा आया था जब किसी मुस्लिम गाँव में कोई मौत हो जाती थी तो कोई जनाज़े की नमाज़ पढ़ाने वाला न मिलता था और लोग लाश को कंधे पर गाँव गाँव लेकर घुमते थे की शायद किसी गाँव में कोई हाफिज मौलवी मिले जो नमाज़ पढ़ा सके लेकिन जब कोई न मिलता तो उस इन्सान को बिना नमाज़ के ही दफना दिया जाता था।


इस क्रांति के ख़त्म होने के वक़्त फजल साहब का परिवार दिल्ली में ही था लेकिन वो अंग्रेजों से बचने के दिल्ली से निकल गये क्यूंकि अंग्रेजों को फतवा देने और सरकार के खिलाफ जंग भड़काने के जुर्म में उनकी तलाश थी। वो दो साल तक अंग्रेजो की पकड से दूर रहे लेकिन 1859 में उन्हें खैराबाद से गिरफ्तार कर के अदलत में पेश किया गया। उन पर 1857 में फतवा देने, 1858 में क्रांतिकारियों का नेता बनने और जंग भड़काने के संगीन आरोप लगाए गये।


उन्हें वकील दिया गया लेकिन उन्होंने ने अपना मुकदमा खुद लड़ने का फैसला किया, जिरह में सारे गवाह उन्हें पहचानने से मुकर गये और उनके खिलाफ कोई सबूत न मिला तो पूछा गया कि क्या ये फतवा तुमने दिया? तुमने खुद अपनी मर्ज़ी से दिया या किसी मजबूर में तुमसे पढ़वाया गया तो उन्होने दो टूक कहा कि मैंने खुद अपनी मर्ज़ी से होशो हवाश में जिहाद का फतवा दिया था और मैं आज भी अपने फतवे के सही होने पर कायम हूँ। अंग्रेज जज जो की इत्तेफाक से उनका पुराना शागिर्द था, उसने उनके फतवे की ताक़त और लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता देखी थी और जानता था कि अगर ये शख्स किसी तरह अंग्रेज सरकार के समर्थन में फतवा दे सके तो अंग्रेज बिना किसी दिक्कत के सेंकडो साल तक भारत में राज कर सकते है।


इसके लिए उन्हें हर तरह का लालच दिया गया लेकिन वो धरती का लाल इतने कच्चे ईमान वाला न था, उसने इनकार कर दिया तो बदले में उन्हें कालापानी की सजा सुनाई गयी और उनकी तमाम जायदाद को जब्त करने का हुक्म दिया गया। वही कालापानी जहाँ से बचने के लिए कई माफीवीरों ने माफीनामा लिखा और अंग्रेजों के गुलाम बन गये।


वो एक अज़ीम हीरो, एक नेता कालेपानी के अँधेरे में चला गया लेकिन वहां भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।


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उन पर उनके साथियों के साथ अनगिनत जुल्म ढहाए गये जेसा की उस जेल में होता था, उन सारी चीज़ों को उन्होंने कोयले से लिखना जारी रखा जो बाद में मुफ़्ती इनयातुल्लाह काकोरवी के जरिये फजल साहब में बेटे मौलाना अब्दुल हक के पास पहुची जिन्हे हक साहब ने एक जगह मिला कर किताब की शक्ल दी जिसका नाम था अस्सौरतुल हिंदिया और जिसे बाद में बागी हिंदुस्तान के नाम से हिंदी में अनुवाद किया गया। ये किताब सामने आने के बाद सालों साल देश के क्रांतियों में लड़ने का जज्बा भरती रही और साथ ही ये बताती रही कि आखिर कालापानी की जेल में क्या सलूक किया जाता है।




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बाद में मौलाना के बेटे मौलाना अब्दुल शमशुल हक ने उन्हें रिहा करवाने की कोशीश कि और कामयाब भी हुए, उन्हें 1861 में कुछ शर्तों के साथ रिहा करने के आदेश दे दिए गये, जब हक साहब रिहाई लैटर लेकर अंडमान की उस मनहूस कालापानी जेल में पहुचे तो उन्हें एक भीड़ दिखाई दी, पूछने पर पता चल कि किसी का जनाज़ा है, करीब जा कर देखा तो ये कोई और नहीं बल्कि खुद उनके पिता, अजीम देशभक्त, महान क्रन्तिकारी, एक जहीन आलिम और काबिल नेता फजल साहब का जनाज़ा था जिसे अब शायद इस कागज़ पर लिखे रिहाई नामे की कोई जरूरत न थी।


वो शायद जेल न जाते काश अगर उन्हें थोडा झूठ बोलना आता, या शायद वो वापस जिन्दा अपने देश आ सकते थे जेल में बीमारी और जुल्म के बीच मरने के बजाये अगर उस कोयले की कलम ने क्रांति के बजाये किसी मफिवीर की तरह कुछ माफ़ी वाले अलफ़ाज़ लिख दिये होते।

या शायद वो अंग्रेजों को बात मान लेते तो हो सकता था कि वो कोई नवाब या अधिकारी बन गये होते और आज उनकी नस्लें देश की संसद में खड़े हो कर खुद को देशभक्त साबित कर पातीं।

Source & Pic credit - Wikipedia!


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