top of page

सुभाष चंद्र बोस - क्या नेताजी का कोई दूसरा पहलू भी था जिसे हम नहीं जानते?

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, या सुभाष चन्द्र बोस, क्यूंकि नेताजी तो उनके नाम के साथ बाद में जोड़ा गया था। क्यूंकि वो किसी खास से प्रभावित थे। जो उनका बहुत करीबी था और वो खुद को अपनी भाषा में नेताजी कहलवाना पसंद करता था।


भारत के इतिहास में जितने भी लोग हुए उनमे से सबसे उलझे हुए और सबसे इंट्रेस्टिंग किरदारों में से एक थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस।



ree

नेताजी का जन्म 1897 में उडीसा के कटक में हुआ था। बाप पहले सरकारी वकील थे बाद में इस्तीफ़ा दे कर निजी प्रैक्टिस की और बंगाल की विधानसभा के सदस्य भी रहे, नामी परिवार था। यानि की चम्मच मुंह में लेकर पैदा होने वाली कहावत यहाँ सच थी। बचपन से तेज तर्रार थे, रेवेनेंषा कॉलेज से पढ़े और बाप दादा से वादा किया की बड़े हो कर कलेक्टर बनेंगे। कलकत्ता में पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए लन्दन चले गये। कलेक्टरी की परीक्षा में चोथी रैंक लाये थे नौकरी भी की लेकिन अंग्रेजों की नौकरी कुछ पसंद न आई, बागी स्वाभाव जो ठहरा। सो अप्रेल 1921 में इस्तीफ़ा देकर वापस आ गये, परिवार वालों ने भी समर्थन किया लाडले बेटे का।


कांग्रेस के संपर्क में आये तो जुड़ गये और चितरंजन दास के प्रभाव में अच्छा खासा पद भी मिल गया। मतलब यहाँ भी आगे। जल्दी ही कांग्रेस के टॉप लीडरशिप तक पहुँच हो गयी और नेहरु से अच्छी दोस्ती हो गयी। पार्टी में सीनियर लीडर इतना यकीन करते थे की जब 1927 में एआईसीसी की बैठक हुई तो सारा जिम्मा सुभाष को ही मिला।


कमान मिलते ही थोडा सा फेरबदल कर दिया, की सारे वालंटियर्स जो स्वागत में रहने वाले थे उन्हें आम कपड़ो से बदल कर वर्दी पहना दी, वो भी उस अंग्रेज दरजी हर्मन से सिलवाई गयी जो उस वक़्त के अंग्रेज अफसरों की वर्दी सीता था। पूरे अंग्रेजी स्टाइल में कांग्रेसी नेताओं का स्वागत हुआ, समारोह शानदार था लेकिन ये सब गाँधी जी को पसंद नहीं आया, एक तो अंग्रेजी तौर तरीकों को त्यागने को कहते थे ऊपर से कांग्रेस में कोई प्रभाव छोड़ने वाला नेता पसंद भी नहीं था जो उनकी वैल्यू को कम कर सके।


खैर वक़्त गुजरता गया, आन्दोलनों में शामिल होते गये, एक बार जेल भी गये और फिर कांग्रेस में अपनी बात को ख़ास तवज्जो न मिलती देख कर यूरोप चले गये, जब गये थे तो ये साल 1933 का था, यूरोप में नाजी ताकतें अपने उफान पर थीं। सुभाष वहां रहे, मुसोलिनी जैसे लीडरों से मिले, यूरोप में रहने वाले भारतीय राष्ट्रवादियों से भी बात की, उनकी किताबें पढ़ी, उनके टच में आये, फासीवाद को करीब से जाना तो हिटलर और मुसोलिनी का राष्ट्रवाद बड़ा पसंद आया। मिलिशिया अपने बदलावों के दौर से गुजर रहा था, सुभाष को ये तरीका बहुत पसंद आया, सोचा की भारत में भी ऐसा ही उग्र राष्ट्रवाद होना चाहिए, देश के लिए मर मिटने वाले लोग होने चाहिए, जो बात न माने और जो देश के खिलाफ हों उन्हें काट कर फेंकने के लिए तैयार युवा फ़ौज होनी चाहिए, लेकिन कैसे।



ree

युरोप में रहने के दौरान सरदार पटेल के भाई विट्ठल भाई पटेल से भी मिले जिन्होंने अपनी सारे संपत्ति सुभाष के प्रभाव में आकर उन्ही के नाम आकर दी लेकिन विट्ठल जी के मरने के बाद सरदार पटेल ने इनकार कर दिया और मामला अदालत में चला गया। बाद में सुभाष ये मुकदमा हार गये और भाई की सारी संपत्ति पटेल को मिली, सुभाष को कुछ मिला तो वो सरदार से मन की दूरी, यूरोप में रहते हुए ऑस्ट्रिया में एमिली नाम की प्रेमिका से शादी भी की जिसके बारे में अफवाह है की वो अंग्रेजों के लिए सुभाष की जासूसी करती थी।


उसी दौरान तुर्की में कमाल पाशा ने खिलाफत का तख्ता पलट किया था, पूरी दुनिया के मुसलमान खिलाफ थे, और भारत के मुस्लिमों ने भी विरोध में खिलाफत चलाया था लेकिन पाशा ने अंग्रेजो का थोडा सा सहारा लेकर तुर्की की सत्ता पलट दी। सुभाष को लगा की भारत में भी के ऐसा भी यंग वाइब्रेंट वारियर होना चाहिए जो हालात को बदल कर रख दे।


1935 में भारत वापस आ गये और फिर से कांग्रेस में आ गये, सुभाष की गिनती कांग्रेस के कोर लीडरों में होने लगी लेकिन उस वक़्त के बड़े नेताओं की नज़र में वो सभ्य क्रन्तिकारी कम थे और रेडिकल ज्यादा था, वैसे ही रेडिकल जैसे विपिन रावत साहब ने पिछले दिनों मुस्लिम युवकों को बताया था। इसी दौरान द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया और सुभाष ने कांग्रस के सामने योजना रखी की अंग्रेज यूरोप में जर्मनी में लड़ने में बिजी हैं और यहाँ हम उन पर अन्दर से हमले करते हैं, ये योजना गाँधी जी को पसंद नहीं आई, शायद किसी राज की वजह से या फिर वो किसी और को अपने से बड़ा नेता बनाना नहीं चाहते थे। 1939 में जब कांग्रेस के अध्यक्ष के लिए चुनाव हुआ तो सुभाष ने गाँधी जी के खिलाफ चुनाव् लड़ा और जीत गये, लेकिन न गाँधी न ही किसी और बड़े नेता को उनके काम करने का तरीका पसंद था।


सबका मानना था कि वो रणनीति के बजाय सीधे मारो लड़ो की नीति में विश्वास रखते हैं। गाँधी जी ने सारे नेताओं से मिलकर सुभाष के खिलाफ मोर्चाबंदी शुरू कर दी और अप्रेल में सुभाष ने खुद ही परेशान होकर इस्तीफ़ा दे दिया और कांग्रेस से अलग हो गये। कुछ महीने बाद उन्होंने फॉरवर्ड ब्लाक के नाम से अलग पार्टी शुरू की और खुद नयी लडाई करने की ठानी, बीच में एक बार कांग्रेस से बुलावा भी आया लेकिन सुभाष ने साफ़ कह दिया की अगर कांग्रेस सीधा हमलावर नहीं होगी तो मैं ये लडाई अकेले ही लडूंगा। कलकत्ता में विरोध के स्वरुप में एक स्मारक को गिरा कर लडाई की शुरुआत की और अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके नज़रबंद कर दिया। इस समय आरएसएस, हिन्दू महासभा और जिन्ना की मुस्लिम लीग ने अंग्रेजों को समर्थन दिया था तो गाँधी जी ने युवाओं से अंग्रेजों की सेना में भारती होने की अपील कर डाली।


लेकिन चैन से कहाँ बैठना था, दाढ़ी बढ़ाई और पीछे की खिड़की से कूद कर भाग लिए,ट्रेन में बैठ कर पेशावर पहुंचे और वहां से पठान बन कर रूस और वहां से रोम इटली और और वहां से जर्मनी यानि हिटलर के पास। हिटलर से मिलकर भारत की मदद करने के लिए हमले का प्रस्ताव रखा, लेकिन नाकामी मिली क्यूंकि हिटलर को हजारों मील दूर किसी गरीब एशियाई देश में कब्ज़ा करने के कोई दिलचस्पी न थी और वैसे भी वो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा था जहाँ वो जीत जाता तो भारत वैसे ही उसके बाप का था। लेकिन उसने अफ्रीका में कैद तीन हज़ार भारतीय सैनिकों को रिहा करवा कर उनका एक लिजियन दस्ता बनवा दिया और एक रेडियो स्टेशन भी बनवा दिया जहाँ से बोस अंग्रेज विरोधी भाषण देते थे और भारतीय सैनिकों से जर्मनी से न लड़ने की रिक्वेस्ट करते थे।


अब एक दिक्कत आ गयी, दस्ते के सैनिक अपने बॉस को क्या बुलाएँ? जवाब आसान था, सुभाष हिटलर और मुसोलिनी को पसंद करते थे, उनकी आइडियोलॉजी और उग्रवाद भी पसंद था। और सबसे अहम् बात कि खुद को हिटलर या मुसोलिनी से कम थोड़ी समझते थे सो नाम भी उनका लेना था। हिटलर को फ्युहरर कहा जाता था और मुसोलिनी को ड्यूस, दोनों का हिंदी मतलब होता है नेता, बोस ने भी खुद का नाम रखा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस।


लेकिन एक सैनिक दस्ते के साथ आराम से रहना और रेडियो पर भाषण देना ये कुछ पसंद नहीं आया, राष्ट्रवाद नहीं मिल रहा था सो हिटलर से दोबारा मिलने को कोशिश की लेकिन हो न सका क्यूंकि एक तो वो युद्ध में बिजी था और दूसरा भारत में उसका कोई इंटरेस्ट नहीं था। जब लगा की यहाँ कुछ नहीं मिलेगा तो दो साल के बाद 1943 में एक जापानी पनडुब्बी में बैठ कर अफ्रीका से मेडागास्कर और वहां से इंडोनेशिया होते हुए सिंगापोर पहुँच गये जहाँ जापान का राज था।


वहां जापानियों का इरादा पूरा एशिया कब्जाने का था लेकिन उससे पहले सिंगापुर को पूरी तरह से कंट्रोल में करना जरूरी था और वहां की जनता विद्रोह कर रही थी। जापानियों ने जनसमर्थन के लिए एक इंडिया लीग बना रखी थी जिसके लीडर रासबिहारी बोस थे जो की कुछ खास नहीं कर पा रहे थे इसलिए जापान को किसी ऐसे हिन्दुतानी की जरूरत थी जो हालात को मुट्ठी में कर सके। नेताजी ने तुक्का बिठाया और रासबिहारी आउट हो गये और नेताजी इंडिया लीग के लीडर बन गये।



ree

चूँकि इंडियन लीग थी इस लिए जो भारतीय सैनिक अंग्रेजो की तरफ से लड़ते हुए जापान के कब्जे में आ जाते वो बोस को हैण्डओवर कर दिए जाते ताकि लोकल इंडियन लोगो का समर्थन मिलता रहे। नेताजी ने उन्हें मिलाकर एक फ़ौज बनायीं आजाद हिन्द फ़ौज, और नारा दिया तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा। वहां से सेना लेकर अंडमान और निकोबार आये और अंग्रेजों से जीत लिया, कोहिमा पर भी हमला किया लेकिन जमीन से जुड़ा हिस्सा होने की वजह से अंग्रेज सेना [पहुँच गयी और नेताजी को वापस हटना पड़ा। वहाँ से वापस अंडमान जा कर रेडियो से देश को संबोधित किया और जनसमर्थन हासिल करने के लिए गाँधी जी को राष्ट्रपिता का सबसे पहला नाम दिया। पब्लिक दीवानी हो गयी मगर कांग्रेस के नेता कुढ़ गये, खैर जनसमर्थन चाहिए था वो मिल गया।


वहीँ आपने आजाद हिन्द सरकार और आजाद हिन्द बैंक बनाया और अपनी करेंसी भी निकाली। इरादा ये था की जब अंग्रेजों को जापान और हिटलर मिल का हरा देंगे तो दिल्ली में यही सरकार बैठेगी। लेकिन ऐसा न हुआ, एटम बम का हमला हुआ और जापान हार गया, नेताजी के सर से साया उठा तो नई नई जीत के जोश में डूबे अंग्रेजों से अकेले कौन टकराए? एक तरफ पूरा ब्रिटिश एम्पायर और दूसरी तरफ मुट्ठी भर कैद से छूटे फौजी।


नेताजी अंडमान में सरकार को छोड़ वापस सिंगापुर पहुँच गये और वहां से रूस जाने की तय्यारी करने लगे, लेकिन बीच में ही विमान लापता हो गया और मौत की खबर आ गयी। माना जाता है की असल में मौत नहीं हुई थी बल्कि पुराने सहयोगी जापान से मिलकर मौत की खबर उडवाई गयी थी ताकि अंग्रेज पीछा करना छोड़ दें। बाद में नेताजी ने पूरा जीवन बाबा के रूप में भेष बदल कर गुजारा उधर अंग्रेजों ने अंडमान में फिर से हमला बोल दिया और वापस जीत लिया।


अब यहाँ मुद्दे की बात ये है की क्या होता अगर उनकी जापानी समर्थन वाली सरकार दिल्ली में आ जाती? बताते हैं की हिटलर की तरह इनका उग्र राष्ट्रवाद सिर्फ जीतने और रणनीति बनाने तक ही था और अंडमान के लोगों ने वापस अंग्रेजों के शासन में जाकर सांस ली थी क्यूंकि वो आजाद हिन्द सरकार से तंग आ चुके थे। सोचता हूँ की ऐसा एक इंसान जिसे हिटलर के कांसंट्रेशन कैंप पसंद थे, उनका राष्ट्रवाद और उनका नाम तक पसंद था, वो कैसी सरकार बनाता? क्यूंकि सुभाष की नज़र में तो राष्ट्र सर्वोपरि था और जनता उसके बाद तो उनके राज में भारत में कैसी जनता होती? वैसे भी असली मालिक जापान होता जो अंग्रेजों से कहीं आगे था, जापान ने चाइना में क्या किया था बताने की जरूरत नहीं है।


और हाँ इस सब में उनकी देशभक्ति पर सवाल नहीं उठाया गया क्यूंकि देश्भक्ति तो हिटलर में भी खूब थी, मुसोलिनी में भी खूब थी जिसे उसी की जनता ने मरने के बाद एक हफ्ते तक नंगा उल्टा लटकाया था। देशभक्ति तो गद्दाफी में भी कम न थी और देशभक्ति तो मोदी की भी कम नहीं थी जब उन्होंने सम्मान में ताली बजाने का हुक्म दिया! वो तो बस पता नहीं कैसे जनता ही ऐसे नेताओं के खिलाफ हो जाती है कुछ दिन बाद।


हम तो शक उन कांग्रेस के नेताओं पर कर रहे हैं जिन्हें लगता था की सुभाष का उग्र रवैया सही नहीं है।


वैसे सुना था की सुभाष को मुस्लिम लीग से नफरत थी और हिन्दू महासभा से भी क्यूंकि वो अंग्रेजों के साथ थे। ठीक वैसी ही वाली नफरत जैसी हिटलर को यहूदियों से थी......


दोस्तों अगर आपको हमारी ये स्टोरी पसंद आयी हो तो लाइक कीजिये, दोसतों के साथ व्हाट्सप्प, ट्विटर, फेसबुक पर शेयर कीजिये, फेसबुक ट्विटर पर हमारे पेज को लाइक कीजिये लिंक आपको ऊपर सोशल सेक्शन में मिल जाएगा।

Comments


©2020 by TheoVerse 
Copyright reserved.

bottom of page