top of page

क्या संघ और भाजपा अचानक रातों रात ताक़तवर बन गए? क्या है उनकी कामयाबी के पीछे की कहानी जानिये!

चलिए पिछले १५०-२०० सालों के सरसरी नज़र डालते हैं और उसमे फिर खुद को रख कर देखते हैं की गलती असल में कहाँ हुई है और इस सारे रायते की जड़ क्या है ?


बात शुरू होती है औरंगजेब के काल से, अकबर से लेकर औरंगजेब तक के सभी मुग़ल राजाओं को आम तोर पर महान की श्रेणी में रखा जाता है मगर औरंगजेब का राज आते आते दक्षिण में मराठाओं ने सर उठा लिया था और दिल्ली की सल्तनत पर लगातार हमले शुरू कर दिए।


नतीजतन औरंगजेब ने अपने ४९ वर्ष के शासन में अधिकतर समय दक्षिण की जंगे लड़ते हुए बिताया और जिसका असर मुग़ल सल्तनत पर वही पड़ा जो आम तोर पर किसी भी राज्य पर जंग का होता है, दिल्ली का खज़ाना खली हो गया और साथ ही उसकी शक्ति भी काम पड़ गयी साथ ही औरंगजेब के बाद के सभी मुग़ल शासक नकारा साबित हुए जिससे वो इतनी बड़ी सल्तनत को(वो भी खस्ता हालत में) नहीं संभल पाए और दिल्ली तक ही सिमट कर रह गए या यूँ कह सकते हैं की नाम के दरबारी राजा बन कर यह गए।

उधर मराठों ने भी शिवाजी के समय तक खूब नाम दौलत कमाया ग्वालियर तक अपना राज्य फैलाया(जिसके चौकीदार मराठी शिंदे हुआ करते थे जो बाद में सिंधिया घराना बने) मगर शिवाजी के बाद वो भी निकम्मे होते चले ये और शासन का काम मुख्यतः पेशवा ही कटे रहे, रही सही कसर पानीपत जैसी जंगों ने पूरी कर दी, होने को तो मराठा साम्राज्य उसके बाद तक कायम रहा पर मैं उसे साम्राज्य नहीं कहूंगा क्यूंकि वो बीएस नाम के शासक थे।


अब इस घटना क्रम में सबसे बड़ी जो बात हुई वो ये की दो उत्तर और दक्षिण में दो बड़ी शक्तियों/शासकों के क्षीण पड़ने के बाद चारों तरफ सैकड़ों राजा,रजवाड़े, नवाब कुकुरमुत्ते की तरह उगने लगे जिनमे से अधिकतर केवल अपने शहर के राजा/नवाब हुआ करते थे जिनमे से रामपुर के नवाब, लखनऊ के नवाब, झाँसी की रानी, ग्वालियर का सिंधिया घराना(वही अपने ज्योतिरादित्य वाले), और राजस्थान के घराने प्रमुख थे। और इन सब में एक बात सामान जो थी वो ये की इन सब को केवल अपने भोग-विलास से ज्यादा मतलब था न की जनता से इसीलिए इस काल में हवेलियां, महल खूब बने।


जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत पर कब्ज़ा कर लिया तो इन सब में से अधिकतर ने अंग्रेजों से अपने अपने रजवाड़ों को बचने के लिए संधि कर ली, संधि में अक्सर ही एक शर्त मुख्य थी की की दीवानी का काम अंग्रेज अपने पास रखते थे और फौजदारी या यूँ कहें की पब्लिक डीलिंग राजा/नवाबों के पास रहती थी। लेकिंन १८५७ के ग़दर के बात बाद हालात बदल गए, सत्ता का कण्ट्रोल ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश हुकूमत के हाथों में चला गया और उन्होने ग़दर से कई मख्य सबक लिए।


जिनमे से सबसे बड़ा सबक ये था की इस ग़दर में हिन्दू मुस्लिम कंधे से कन्धा मिला कर लड़े थे। इसीलिए पहले तो अंग्रेजी सरकार ने पब्लिक डीलिंग को नवाबों/राजाओं से अपने हाथ में ले लिए और उन्हें मात्र पेन्शन वाला नाम का शासक बना कर छोड़ दिया और साथ ही आने वाले समय में ऐस किसी संभावित विद्रोह को रोकने के लिए उन्होंने फुट डालो वाली नीति पर काम करना शुरू कर दिया , जिसके तहत उन्होंने हिन्दू राजाओ से कुछ नरम रुख से डील करना शुर किया और मुस्लिम नवाबों के साथ उन्हो कड़ा रुख अपनाया, बहादुर शाह जफ़र के बेटों की हत्या और उनका म्यांमार निर्वासन इसी कड़ी का एक भाग था।



ree

इतिहासकार इसका कारण ये भी बताते हैं की १८५७ के ग़दर में अंग्रेज भली भांति जानते थे की ग़दर का केंद्र लखनऊ में बेगम हज़रात महल और दिल्ली में आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर थे और दक्षिण में हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुलतान ने भी एक लम्बे समय तक अंग्रेजों को छकाया था जबकि अधिकतर हिन्दू राजा पहले ही ब्रिटिश झंडे की शरण में आ कर अपना राज्य सुरक्षित कर चुके थे केवल झाँसी की रानी ने अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंका और उसका कारण भी अपना राज्य बचाना था न की आजादी की लड़ाई(कुछ तिहासकारों का मत है की असल में वो लड़ाई कभी हुई ही नहीं क्यूंकि लक्ष्मीबाई पहले ही अंग्रेजों के समर्थन में थी और जिसने वो जंग लड़ी थी वो झलकारी बाई नाम।की महिला थी पर ये तथ्य अपुष्ट हैं)

या संक्षेप में कहें तो जो मुगलों के बिखराव से बने वहाबी राजवंश या नवाब थे वो सख्ताई से अंग्रेजों के खिलाफ खड़े थे और जो मराठों से निकले हिन्दू रजवाड़े या राजस्थान के राजवंश थे वो पहली ही बार में अंग्रेजों से जा मिले जिसका स्वाभाविक फायदा उन्हें मिला भी था, इसीलिए अंग्रेज हिन्दुओं पर नरम रहे और मुस्लिमों पर सख्त, अब इसे चाहे तो देशभक्ति वाले एंगल से देख सकते है या दूसरा एंगल ये भी है की जो भी मुस्लिम शासक थे वो अपनी कई सो सालों की सत्ता की हनक को अभी भूले नहीं थे और कथित "बादशाह सलामत" बने रहना चाहते थे किसी का हुक्म बजा लाना उन्हें मंजूर नहीं था दूसरी तरफ अधिकतर हिन्दू राजा उससे थोड़े आरसे पहले ही किसी न किसी बड़े राजवंश से आज़ाद होकर बने थे और राजस्थानी राजवंशों ने कई सदियों तक मुगलों की गुलामी धोयी थी इसीलिए उन्हें मात्र राजा की उपाधि और भोगविलास वाली अंग्रेजी की दी हुयी जिंदगी ही काफी थी जिसमे वो अपने नाम मात्र के राज्य की जनता पर हंटर चला सके।


बहरहाल आप इसे कैसे देखते है वो आपकी मर्ज़ी है मगर यहां से हिन्दू मुस्लिम एक न होकर दो अलग अलग कौम हो गयी और भविष्य का निर्णय इसी आधार पर होना था। अब चूँकि मुस्लिम सत्ता से लगभग बेदखल किये जा चुके थे उनमे से कुछ ने सोचा की सत्ता न सही तो कम से कम पढ़ लिख अफसर अधिकारी ही बना जाय जिससे सत्ता में ज्यादा न सही पर कुछ दखल तो रहे, इन्ही प्रयासों का नतीजा अलीगढ एंग्लो-इंडिया कॉलेज के रूप में सामने आया जिसका प्राथमिक तौर पर कुछ विद्वानों ने विरोध किया पर कई मुस्लिम रजवाड़ो ने इसमें खूब दान दिया, भविष्य में इसी कॉलेज में से मुस्लिम लीग भी निकली, हिन्दू रजवाड़े इस क्षेत्र में पीछे ही रहे क्यूंकि उन्हें अंग्रेजों के समर्थन से भरपूर सत्ता सुख भोगने को मिल रहा था।

लेकिन अंग्रेजों के सामने एक बड़ी समस्या थी, वो नौजवान जो पढ़ लिख कर इन दोनों ही विचारधाराओं से अलग अपनी एक अलग ही विचारधारा चला रहे थे और क्रांति चाहते थे ठीक वैसे ही जैसे आज भी कई इंटेलेक्चुअल होते हैं, उन्हें काउंटर करने के लिए अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षित लोगों में से कुछ को छांट कर उनकी एक संस्था बनाई जिसका काम था जाहिरी तौर पर अंग्रेजों का विरोध करते हुए उनसे अनुनय विनय करना और अपनी बातें मनवाना लेकिन असली मक़सद था किसी भी भारतीय आंदोलन को हाईजैक करके उसे ख़त्म करने के कगार पर पहुंचा देना ठीक वैसे ही जैसे २०११ में संघ ने केजरीवाल नाम का अपना एक आदमी दिल्ली में प्लांट किया जिससे शिक्षित वर्ग उसका फैन होकर विरोध करना छोड़ दे, बहरहाल अंग्रेजों ने अपनी इस पार्टी का नाम रखा Indian National Congress (वही राहुल गाँधी वाली), और ये अपने मक़सद में सफल भी रही।


ree

कांग्रेस प्रगतिशील लोगों की संस्था थी जिसने अक्सर प्रगतिशीलोगों को अपने साथ ले लिया और भरोसा दिलाया की अंग्रेज हमारी बात शांति से सुनेंगे ताकि कोई विद्रोह की न सोच सकें, जब भी कांग्रेस ने कोई आंदोलन किया और उनकी बात सुनी गयी तो अक्सर देसी राजाओं की जेब कटी या अगर वो आंदोलन अगर सच में अंग्रेज हितों के आड़े आया तो उसे किसी न किसी बहाने से वापस ले लिया गया।


इसी बीच हिन्दू रजवाड़े भी देर से ही सही जागने लगे थे, जिसमे मदन मोहन मालवीय जैसेलोगों का मुख्य किरदार था, इस मुहीम के परिणाम में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और हिन्दू महासभा जैसे संघठन सामने आये जिसमे रजवाड़ों ने भर भर कर दान दिया, जिसमे सिंधिया परिवार का मुख्य योगदान रहा था (गौरतलब है की हमारे पूर्व रेल मंत्री माधव राव के दादाजी जब अवयस्क थे तो उनके पिता श्री चल बसे जिससे राजा साहब ने अपने उस खानदानी खजाने को खो दिया जो ग्वालियर के क़िले में दफ़न था और सत्ता संकट में आ गयी, बाद में अंग्रेजों के सहयोग से खोज अभियान चलाया गया मगर कुछ न हो सका मगर कुछ समय बाद किसी तरह महाराज उस खजाने के काफी बड़े हिस्से को १९२० में किसी तरह खोजने में सफल रहे, जिसके बाद महाराज ने तय किया की अब खजाने को दबा रखने के बजाय निवेश किया जायेगा, जिसके बाद बनारस कॉलेज, हिन्दू महासभा, १९२५ में संघ और मृतप्राय टाटा स्टील को खुले दिल से आर्थिक सहायता दी गयी), संघ और महासभा दोनों का मुख्य उद्देश्य ये था की अगर अंग्रेज इस देश से जाएँ तो सत्ता हमारे हाथ लगे और पुराना वाला वर्ण व्यवस्था वाला नियम लागू किया जा सके, इसी के चलते उन्होंने एक नए धर्म की खोज की जिसे हिन्दू या सनातन धर्म का नाम दिया गया, ज्ञात रहे की इसे पहले केवल जाती व्यवस्था होती थी या ब्राह्मण धर्म होता था, हिन्दू धर्म नाम की चिड़िया पहली बार हिन्दू महासभा की स्थापना के समय ही सामने आयी जिससे अंग्रेजों के सामने खुद को बहुमत में सिद्ध किया जा सके, इस राह में रोड़ा बन रहे मुस्लिमो को हटाने के लिए हिन्दू महासभा ने ही सबसे पहले द्विराष्ट्र सिद्धांत को सामने रखा।


इधर कांग्रेस अपना काम कर रही थी, साथ ही चूँकि कुछ मुस्लिम कांग्रेस से कटने लगे थे तो मुस्लिम लीग में जिन्नाह नाम के एक अयाश आदमी को प्लांट किया गया जिससे मुस्लिमों को अंग्रेजों के खिलाफ जाने से रोका जा सके। कुछ छोटे मोटे भगत सिंह जैसे आंदोलन को कांग्रेस, संघ और अंग्रेजों ने मिल बाँट कर ख़त्म कर दिया, अलबत्ता नेताजी ने कड़ी टक्कर जरूर दी थी पर अंत में उन्हें भी हाशिये पर जाना पड़ा।



अंग्रेज चले गए, सत्ता मिली अंग्रेजों के सबसे बड़े दो चाटुकारों को, इस बीच में जो नहीं हुआ वो ये की हिन्दू महासभा और संघ का हिन्दू राष्ट्र का सपना पूरा न हो सका जिसका बड़ा कारण था की ये केवल ख़त्म होते रजवाड़ों के समूह का प्लान था और उस ज़माने में न के बराबर नहीं थी, होती भी कैसे जो प्रजा उन कथित महाराजाओं के हंटर खा खा कर बचने के तरीके ढूंढती रहती थी वो कैसे उन्ही के देखे एक सपने को अपने ऊपर दाल लेती? इसमें और यही सही कसर गाँधी की हत्या ने कर दी, संघ पर बैन लगन के बाद लोह कथित हंडुवादियों को चोर की तरह देखते थे उस ज़माने में, वक़्त की नज़ाकत को देखते हुए नेहरू ने अंग्रजों और आंबेडकर के साथ मिल कर देश को निरपेक्ष राष्ट्र घोषित कर दिया जबकि पकिस्तान मुस्लिम राष्ट्र बन गया(ये दूसरी बाट है की सेक्युलर चाचा ने चुपके से संविधान में अल्पसंख्यक विरोधी कई प्रावधान जोड़ दिया जिनमे directive principle article 44 प्रमुख है और बाद में इसमें संशोधन करके गैर हिंदू पिछड़ों को आरक्षण से दूर किया गया।


जैसा की बताया, महासभा के सबसे बड़े फंडर और संस्थापक सिंधिया महाराज थे, आजादी के बाद नेहरू ने खूब चाहा की जीवाजी कांग्रेस ज्वाइन कर ले पर वो तो मन से संघी/महासभाई थे, उन्हें राज्यपाल ही बनाया गया मगर जीवाजी ने अपने मन की हट न छोड़ी। हालाँकि नेहरु के लिहाज के लिए पत्नी विजयाराजे सिंधिया को कांग्रेस में भेज दिया, लेकिन भले ही राजमाता कोंग्रेसी बन गयी मगर लगातर ग्वालियर एरिया से लगातारजन संघ की सीटें निकलती रही। सोचो उस जमाने में किसकी हिम्मत होगी ग्वालियर के क़िले के खिलाफ जीतने की , खैर छोडो जो भी कारण रहा हो, मगर मत भूलियेगा की कॉग्रेस में जाने से पहले राजमाता विजयाराजे सिंधिया जान संघ के संस्थापकों में से एक थी।


१९६७ में पहली बार DP मिश्र, इंदिरा, और राजमाता के ईगो के चक्कर में मध्य प्रदेश की कोंग्रेसी सरकार गिर जाती है और राजमाता अपने प्रभाव वाले विधायकों को तोड़कर पहली बार गैर कोंग्रेसी सरकार बनवा देती हैं। इसी के साथ केंद्र में इंदिरा जी सत्ता में आ जाती हैं तो राज माता साड़ी मुहीम छोड़ कर फिर से एक बार रजवाड़ों को एक करने, फंडिंग करने, और महासभा/संघ के मिशन को जिन्दा करके जनसंघ को केंद्र में सत्ता में लाने में लग जाती हैं। लेकिन इंदिरा क इसकी भनक थी, उस जमाने में सभी राजाओं को प्रिवीपर्स के नाम से पेंशन मिलती थी जो असल में उनके राज्य के भारत के साथ में मिलने का मुआवजा था, और यही पैसा सभी राजाओं की ताक़त थी, इंदिरा के एक झटके में प्रिवीपर्स को ख़त्म कर दिया गया, राजाओ की ताक़त का स्रोत पैसा ख़त्म हो गया, जयपुर में छापा पड़ा, कुछ नहीं मिला मगर बरामद 1500 डॉलर की बिना पर विदेशी मुद्रा अधिनियम के तहत महारानी गायत्री देतें हो गयी और थोड़ी उठा पटक के बाद सभी रजवाड़ों ने अटल वाजपेयी की जबान से इंदिरा नहीं तू दुर्गाै है का गान गा दिया।


इमरजेंसी का दौर आया और राजमाता सत्ता के सामने डटे रहने के कारण जेल गयी, बेटा माधव राव नेपाल भाग गया, फिर बैक डोर से कोई सेटिंग हुई और माधव राव वापस आये और कांग्रेस ज्वाइन कर ली और राजमाता को जमानत मिल गयी, अब बेटा कोंग्रेसी था और माँ जनता पार्टी में इस प्रकार माँ बेटे की राजनीती एक दूसरे के खिलाफ रही(बस ऐसे ही जैसे आज़ादी के बात राजमाता और महाराज की एक दूसरे के खिलाफ थी),

माधव राव कंग्रेस से सांसद हो गए, जीवा जी ने उन्हें अपने ही पाले हुए अटल वाजपेयी से भिड़ा दिया, अटल हारे और जनता पार्टी 2 सीटों पर सिमट गयी, इसी दौरान इंदिरा की हत्या हो गयी और राजीव गाँधी नामक एक प्रधानमंत्री देश को मिला। इसके माधव और बाद में उनका बेटा ही कांग्रेस में रहे, परिवार के अन्य सदस्य वसुंधरा राजे, दुष्यंत राजे, यशोधरा आदि भाजपयी ही रहे।




ree

१९८४ के बाद PM साहब ने पहले मुसलिमो को खुश करने के लिए तीन तलाक़ वाला केस पलटा और जब इसके विरोध में और फिर जब कुर्सी हिलती दिखी तो हिन्दुओं को खुश करने के लिए बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा दिया और नतीजे में दोनों तरफ के वोट से हाथ धो बैठे और अंत में श्री लंका की सरकार खुश करने और दक्षिण के वोटों के चक्कर में जान से हाथ धो बैठे।



इसके बाद का घटना क्रम जहां तक मैं समझता हूँ बताने की जरूरत नहीं है, फिर भी, इंदिरा के बाद हिन्दू वादी संघठन मजबूत हुए और १९९२ में बाबरी शहीद होने के बाद इतने मजबूत हुए की कांग्रेस कब्र में लगभग चली ही गयी थी, जिसके बाद का १० साला कार्यकाल इसलिए मिला क्योंकि कारगिल वॉर और ताबूत घोटाले से भाजपा सरकार ने अपनी लोकप्रियता खो दी थी, कांग्रेस के 10 में डॉक्टर साहब कोई गुल खिलाने में नाकामयाब रहे या जान बोझ कर उन्होंने कुछ किया नहीं, संघ ने १४ में सत्ता में वापसी की और कांग्रेस को उसके अंजाम तक पहुंचा दिया, हाल ही की सिंधिया की घर वापसी मेरे अनुसार इसी घटना करा का हिस्सा है जिसके बाद कम से कम मैं ये कलह सकता हूँ की कंग्रेस अब वापस नहीं आएगी, और जो घटना क्रम आप देख रहे हैं वो अचानक न हो कर उनकी परिपाटी बहुत पहले ही तैयार हो चुकी थी।


दोस्तों अगर आपको हमारी ये स्टोरी पसंद आयी हो तो इसे लाइक करना न भूलें और अपने ग्रुप में शेयर करें जिससे हम आपके लिए ऐसे ही चीज़ें ढूंढ कर लाते रहें।


 
 
 

Comments


©2020 by TheoVerse 
Copyright reserved.

bottom of page