जब संस्कृति बचाने के चक्कर ने एयरलाइन डूबा बैठी सरकार।
- TheoVerseMinds

- Jun 13, 2020
- 7 min read
जहाँगीर रतनजी दादाभाई टाटा यानि J.R.D. TATA, एक फ्रेंच बिजनेसमैन थे। टाटा का जन्म पेरिस के एक अमीरी घराने में 1904 मे रतनजी दादाभाई टाटा के यहाँ हुआ था। बचपन से काफी कुछ देखा था, जन्म लेने के साथ टाटा ग्रुप के भावी मालिक बन गये तो और कुछ करने के ख़ास जरूरत भी नहीं थी।

टाटा परिवार दरअसल पहले भारतीय ही था और इनके पूर्वज गुजरात से मुंबई आ कर बसे थे लेकिन बाद में रतनजी टाटा फ्रांस में सेटल हो गये और भारतीय नागरिकता छोड़ दी। आज आप व्हाट्सएप्प युनिवेर्सिटी में पढेंगे की किस तरह टाटा से बड़ा देशभक्त परिवार कोई नहीं हो सकता लेकिन मेरे हिसाब से वो भारतीय है क्यूंकि उनका धंधा इस देश में चलता है और जिस दिन उन्हें कहीं बाहर फायदा दिखने लगेगा तो ठीक रतनजी की तरह टाटा के वंशज देश को लात मारकर यूरोप या अमेरिका में दिखेंगे।
खैर ये आउट ऑफ़ कोर्स हो गया। जहाँगीर अपने शुरुआती 24 साल कभी भारत नहीं आये और यूरोप में ही पढाई की। कहते है कि एक बार 1927 में जहाँगीर अपने एक दोस्त के साथ प्राइवेट जेट में इंग्लिश चैनल के ऊपर उड़ान भर रहे थे, एविएशन उस वक़्त तक नया सेक्टर था और जहाँगीर पहली बार जहाज़ में बैठे और तभी उड़ान के बीच में ही खुद की एविएशन कंपनी या एयरलाइन शुरू करने का विचार बना लिया।
पिता रतनजी को मौत एक साल पहले 1926 में हो चुकी तो फैसला लेने की लिए आज़ाद थे सो एयरलाइन शुरू करने का काम चालू कर दिया लेकिन दिक्कत ये थी की ये नया सेक्टर था और तब तक इतना मशहूर नहीं था, जो थोडा बहुत हवाई डाक या मुसाफिरों का काम था उस पैर पहले ही अमेरिकी यूरोपी घराने कब्ज़ा जमाये बैठे थे और टाटा का कोई चांस नहीं था।
जब यूरोप में दाल न गली तो टाटा को पूर्वजों का देश याद आया और भारत आ कर एयरलाइन शुरू करने का प्लान बनाया और लन्दन जाकर ब्रिटिश इंडिया के अफसरों से मिले। इंडिया में हवाई लाइसेंस मिलने की बात पक्की हुई तो पता चला की उस वक़्त के कानून के हिसाब से डाक का लाइसेंस केवल भारतीय नागरिक को ही मिल सकता था। टाटा एक बार फिर फंसे लेकिन सपना पूरा करने की जिद में फ्रेंच नागरिकता त्याग कर भारतीय नागरिकता ली और 1929 में भारतीय नागरिक बन गये।
अगले तीन साल जोर शोर से तय्यारी होने के बाद बाद आख़िरकार 1932 में दो पायलट, चार इंजिनियर और चंद अन्य कर्मचारियों को साथ लेकर भारत की पहली एयरलाइन कंपनी शुरु की गयी जिसका नाम रखा गया टाटा एयरलाइन। चूँकि भूतपूर्व यूरोपियन थे और अंग्रेज सरकार से नजदीकियां थी तो कंपनी शुरू होते ही हवाई डाक का ठेका भी मिल गया और सरकारी डाक और कागज़ पत्तर जो पहले इंग्लिश कंपनी लाती ले जाती थी अब टाटा ले जाने लगे।

अगले दस साल में यानि 1942 आते आते टाटा को डाक के साथ साथ सवारी ढोने का लाइसेंस भी हासिल हो गया और इस तरह टाटा एयरलाइन भारत की पहली यात्री विमान सेवा बन गयी। भारत में भेड़ चाल बहुत पाई जाती है इसलिए आजादी आते आते पूरे भारत में एक एक करके छोटी बडी 9 कंपनियाँ खड़ी हो गयी
आजादी के बाद नेहरु सत्ता में आये, 1954 में इन सभी नौ कम्पनियों का मुआवजा दे कर अधिग्रहण कर लिया गया और दो बड़ी कम्पनियां बनायीं गयी, देश के अन्दर के लिए इंडियन एयरलाइन्स और विदेशी उड़ानों के लिए एयर इंडिया। इन सभी कम्पनियों के मालिकों में टाटा सबसे अनुभवी और होशियार सीईओ साबित हुए थे लिहाज़ा नेहरु ने उन्हें एयर इंडिया के चेयरमैन पद के लिए न्योता दिया गया। टाटा ने चेयरमैन बनना क़ुबूल किया लेकिन इस शर्त पर की सरकार का मतलब एयरलाइन से केवल मुनाफे तक ही होगा और संचालन से लेकर नियोक्ति और मैनेजमेंट में सरकार किसी भी तरह का दखल नहीं देगी और टाटा अपनी मर्ज़ी से कंपनी चलाएंगे।
जेसा ऊपर लिखा है कि देशभक्ति का तो पता नहीं मगर टाटा बिजनेसमैन कमाल के थे।

कंपनी चलाने का हुनर खानदानी था, बारीक से बारीक चीजों पर पैनी नज़र रखते थे। उस समय मीडिया आज के जितना आम नहीं था और टाटा उतने बड़े वाले फोटोबाज भी नहीं थे इसलिए कई बार उनके अपने कर्मचारी उन्हें पहचानने में गलती कर जाते थे, टाटा इस चीज का फायदा उठा कर खुद फ्लाइट में मुसाफिर बन कर जाते और सर्विस को परखते थे।
एयर इंडिया आसमान में राज करने लगी और मुनाफा भर भर कर आने लगा। शर्त के हिसाब से कभी नेहरु और उनके बाद के किसी प्रधानमंत्री ने कभी भी टाटा को नहीं टोका तो टाटा खुश और जब भर भर कर मुनाफा मिला तो सरकार भी खुश यानि हैप्पी पार्टनरशिप। रिकॉर्ड बताते है की मैनेजमेंट और सर्विस के साथ फ्लाइट में मिलने वाले खाने और छोटी छोटी बातों की समीक्षा खुद टाटा किया करते थे।
वक़्त बदला और 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार सत्ता में आई।
मोरारजी कट्टर संस्कृतिवादी प्राणी थे और हिंदुत्व सर पर चढ़ा रहता था। उनके बारे में मशहूर था की वो स्वमूत्र पान करते थे यानि खुद के पेशाब को जड़ी बूटी मिला कर खुद पी जाते थे, गूगल पर आज भी इस घटना पर कई आर्टिकल मिल जायेंगे। स्वमूत्र भले ही पिया करते थे लेकिन मांस मदिरा से कोसों दूर थे क्यूंकि ये दोनों चीज़ें उनके हिसाब से अभारतीय थी।

एक बार विदेश जाना हुआ तो एयर इंडिया की फ्लाइट ली, फ्लाइट में किसी एयरहोस्टेस ने वाइन के लिए पूंछ लिया, मने बिलकुल ही धर्म भ्रष्ट होने वाली बात कर दी। मामला यही नहीं रुका बल्कि मदिरा से मना किया तो एयरहोस्टेस ने खाने के ऑप्शन में वेज और नॉन-वेज दोनों मेनू सामने रख कर पसंद मालूम कर ली।
शाकाहारी पीएम का माथा ठनका और विदेश से वापस आते ही गंगाजल का स्नान हुआ और अगले ही दिन टाटा को पीएम ऑफिस में तलब कर लिया गया। टाटा आये तो पीएम साहब भड़क पड़े और और खरी खोटी सुना डाली। हस्तक्षेप न देने की शर्त टूट चुकी थी, पीएम साहब ने टाटा को आदेश दिया कि दारू विदेशी चीज़ है हमारी संस्कृति में वर्जित है इसे फ्लाइट में बंद करो। टाटा ने लाख मना किया लेकिन पीएम अड़ गये और कह दिया की दारु से लीवर भी ख़राब होता है और हमारे लिए ग्राहक भगवन होता है हम उनका लीवर ख़राब नहीं कर सकते इसलिए दारु और मांस दोनों बंद कर दो।
अगले महीने से एयर इंडिया शुद्ध शाकाहारी और बिना दारु वाली एयरलाइन बन गयी।
शाकाहारी पीएम ने संस्कृति और लीवर दोनों बचा लिए लेकिन चेयरमैन न बचा सके, टाटा ने हस्तक्षेप से खिन्न हो कर एयर इंडिया से इस्तीफ़ा दिया और अपने खानदानी टाटा ग्रुप का रुख किया। पीएम साहब भी 56 इंच से थोडा बड़ा सीना रखते थे लात मार कर भगा दिया और एयर इंडिया को सरकारी अमले के हाथ में दे दिया और अगले साल एयर इंडिया ने अपने बनने के बाद जीवन में पहली बार घाटा दर्ज किया।

बिना दारु और नॉन-वेज वाली फ्लाइट में इंटरनेशनल पैसेंजर नहीं बैठते थे, उनके लिए दूसरी विदेशी फ्लाइट मोजूद थी। बनने के बाद भर भर के मुनाफा देने वाली कंपनी पहली बार घाटे में जा रही थी। 1980 का दौर आया और इंदिरा सरकार लौटी। टाटा को मिन्नतें करके वापस लाया गया क्यूंकि उन्ही के राज में कंपनी टॉप पर थी। डैमेज कण्ट्रोल के लिए हाथ पैर मारे गये लेकिन कोई फायदा न हुआ क्यूंकि नया नाम बनाना फिर भी आसान है मगर डूबा हुआ नाम बनाना लगभग नामुमकिन, अब एयर इंडिया ग्राहकों के बीच में भरोसा खो चुकी थी।
अगले साल 1994 में देश के वैश्वीकरण का दौर शुरू हुआ और विदेशी एयरलाइन कम्पनियों को देश में बिजनेस करने की परमिशन मिल गयी और अब एयर इंडिया का कम्पटीशन बढ़ गया। पहले जो विदेशी फ्लाइट केवल वापसी में पैसेंजर ले जा सकती थी अब वो बाकायदा इंडिया से बिजनेस कर सकती थी। 1998 में एक बार फिर देश में एक बार फिर एक कवि की संस्कृतवादी सरकार बनी और सारे मलाईदार रूट एयर इंडिया से झटक कर विदेशी और प्राइवेट कम्पनियों को दे दिये गये और एयर इंडिया के पास केवल मजबूरी के घाटे वाले रूट और स्लॉट बचे। 2004 में सरकार बदली और एयर इंडिया को बचाने के प्रयास हुए लेकिन तब तक कम्पनी बीएसएनएल की तरह घुटनों पर आ चुकी थी। घाटा कम करने के लिए एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइन्स को मर्ज कर दिया गया।
दोनों का घाटा मिला कर कुल 500 करोड़ के लगभग कर्जा बना। कंपनी की कमान प्रफुल्ल पटेल के हाथ में चेयरमैन के तौर पर दे दी गयी। लगभग सारे विमान पुराने थे और मैनेजमेंट ख़राब था उसे सुधारने की कोशिश हुई लेकिन कोई खास फायदा न हुआ। कम्पनी घटिया फ्लाइट सर्विस के लिए बदनाम हो चुकी थी तो बदनाम ही रही। रही सही कसर सरकारी सब्सिडी वाले यात्रियों ने पूरी की।
वक़्त चलता रहा और एक बार फिर 2014 में देश में तीसरी बार संस्कृतवादी सरकार का आगमन हुआ।
लेकिन ये सरकार पहले वाली दो सरकार की तरह बेवक़ूफ़ नहीं थी, ये कम्पनी को घाटे में ले जाने का दाग नहीं झेलना चाहते थे इनके डीएनए में व्यापार था। ये जानते थे गाड़ी को चलती हुई बेचा जाना चाहिए क्यूंकि रुकने के बाद तो कबाड़ी भी नखरे दिखता है इसलिए उन्होंने हालात सुधारने के बजाय सीधा एयर इंडिया को सेल पर लगा दिया।
न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।

लेकिन न तो घाटे में जाती बदनाम हो चुकी एयर इंडिया का कोई ग्राहक आया न ही सरकार का इरादा अकेले एयर इंडिया को बेचने का था बल्कि वो तो एक एक करके सारी पब्लिक सेक्टर की कम्पनियां बेचना चाहते थे इसीलिए उन्होंने रोज रोज मोल भाव करने के एक अलग से मंत्रालय बना दिया पुरखो की कमाई बेचो मंत्रालय। फैशन वाला नाम रखा डिसइनवेस्टमेंट मिनिस्ट्री।
एक एक करके तमाम सरकारी कम्पनियां दुकान पर सजाई जा रही है ताकि कोई घाटे में ले जाने का आरोप ही न लगा सके। रोजाना बोली लग रही है रोजाना कम्पनियां डुबो कर जनता का लीवर और संस्कृति बचायी जा रही है। इकॉनमी डूबा कर जनता को कोल्हू का बैल बना कर सेहत भी बनायीं जा रही है और घर पर खाली बिठाकर परिवार का अपनापन बचा कर चिंता मुक्ति से दूर रखा जा रहा है।
बस आम जनता ये समझने की कोशिश में है कि अगर ज्यादा दारू लीवर ख़राब करती है तो ज्यादा संस्कृति क्या ख़राब करती है?
कहीं दिमाग तो नहीं?
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